________________
११४ ]
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जनितावरणपरिस्फुटप्रभावमावितः सोपाधिकगुणमंत्यादिमिस्तद्वानिति सोपाधिक आत्मेति व्यपदेशमाग्भवति । अत्र तु तदभावे तदभावान्निरुपाधिकगुणगुणिभेदभावनासमुत्पादादनुपचरितसद्भूतभेदोऽपि समुत्पन्नः। केवलादिरिति केवलस्यकत्वादादिरिति तदुत्थानन्तगुणोदयात्केवलादिरिति कथनम् । अथासद्भूतव्यवहारस्यापीत्थमेव भेदद्वयं प्रकटयन्नाह । असद्भूतव्यवहारोऽप्येवं पूर्वोक्तसद्भूतवद्विधा द्विप्रकार: परिकीर्तितः कथित इति ।।६।।
व्याख्यार्थः-जैसे केवलादिगुणसे युक्त ( केवलज्ञानरूप गुणसे सहित ) आत्मा अर्थात् कर्मोके क्षयसे उत्पन्न जो प्रभूत ( महा ) अनुभव है; उस महानुभवस्वरूप भाव मय जो जीव हैं; वही उपाधिरहित केवलज्ञानसे संयुक्त निरुपाधिक आत्मा है । क्योंकिआत्मा संसारमयी अवस्थामें अष्ट प्रकारके जो कर्म हैं; उन कर्मोंसे उत्पन्न आवरणोंके अप्रकट प्रभावसे सहित हुआ उपाधिसहित गुण जो मतिआदिक ज्ञान हैं; उनसे मतिज्ञानी अर्थात् उपाधिसहित आत्मा इस नामका भागी होता है। और यहांपर कारणके अभावसे कार्यका भी अभाव होता है; इस न्यायसे उपाधिसहित मतिज्ञानादि गुणोंके अभावसे उपाधिसहित गुणी आत्मा भी नहीं रहता इसलिये उपाधिसे वर्जित गुण गुणीके भेदकी भावनाकी सम्यक् प्रकारसे उत्पत्तिसे "अनुपचरितसद्ध त" यह नयका भेद सिद्ध होता है । और सूत्रमें जो “केवलआदिगुणसहित गुणी आत्मा निरुपाधिक है" इस बाक्यमें "केवल" पदके आगे "आदि" पद दिया है; वह कैसे संगत हो सकता है; क्यों कि-केवलज्ञान तो एक है ? इसका उत्तर यह है; कि-यद्यपि केवलज्ञान एक ही है; तथापि केवलज्ञानसे उत्पन्न जो अनन्त सुख, अनन्त वीर्यआदि गुण हैं; उन गुणोंकी विवक्षासे "केवलादि" यहांपर आदि पद दिया है; अर्थात् केवलज्ञानके सहचारी अनन्त गुण सहित निरुपाधिक आत्मा यह अभिप्राय "आदि" इस पदका है ॥ अब असद्भूतव्यवहारके भी इसी प्रकार दो भेदोंको प्रकट करते हुए कहते हैं । असद्भूत व्यवहार नय भी पूर्वोक्त सद्भूतनयके समान दो ही प्रकारका कहा गया है ॥६॥
अर्थतस्यासद्भूतव्यवहारस्य भेदद्वयं सोदाहरणपूर्वकं प्रकटयन्नाह ।
अब इस असद्भूतव्यवहारके उदाहरणसहित दोनों भेदोंको प्रकट करते हुए आचार्य इस अग्रिम सूत्रको कहते हैं !
असंश्लेषितयोगेऽन यो देवदत्तधनं यथा ।
स्यात्संश्लेषितयोगेऽन्यो यथास्ते देहमात्मनः ॥७॥ भावार्थः-असंमिलित योगमें जहां संबन्धकी कल्पना होती है; वहांपर प्रथम भेद अर्थात् उपचरितअसद्भूतव्यवहार होता है । जैसे देवदत्तका धन । और संमिलित (मिले हुए) योगमें जहां संबन्धकी कल्पना होती है, वहां द्वितीय भेद अर्थात् अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय होता है; जैसे आत्माके देह स्थित है ॥७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org