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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ११५ व्याख्या । अब द्वयोरपि भेदयोर्मध्ये अग्र्यः अग्रेमवोऽयो मुख्यः प्रथमः असंश्लेषितयोगे कल्पितसम्बन्धविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो भवेत् । यथा देवदत्तधनम्, इह धनेन देवदत्तस्य संबन्धः स्वस्वामिभावरूपश्च जायते सोऽपि कल्पितत्वादूपचरितः । यतो देवदत्तः पुनर्धनच कद्रव्यं न हि तस्माद्भि नद्रव्यत्वादसद्भतभावनाकरणेनासद्भूतव्यवहार इति । तथा द्वितीयोऽन्यः संश्लेषितयोगे कर्मजसंबन्धे भवति । यथा आत्मनो जीवस्य देहमित्यास्ते तिष्ठति । अत्र ह्यात्मदेहयोः संबन्धे देवदत्तधनसंबन्धइव कल्पनं नास्ति विपरीतभावना निवर्त्यत्वाद्यावजीवस्थायित्वादनुपचरितं तथा भिन्नविषयत्वादसद्भूत व्यवहार इति ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थः-यहां इन दोनों भेदोंके अर्थात् उपचरितअसद्भूतव्यवहार तथा अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारके मध्यमें अग्रय, आगे ( प्रथम ) होनेवाला मुख्य भेद अर्थात् पहिला भेद संश्लेष (संबन्ध) का योग न होनेपर अर्थात् कल्पित संबन्ध माननेपर उपचरितअसद्भूतव्यवहार होता है; जैसे “देवदत्तका धन" यहांपर देवदत्तका धनके साथ स्वस्वामिभावरूपसे संबन्ध माना गया है; वह भी कल्पित होनेसे उपचरित ( उपचारसे सिद्ध ) है । क्योंकि-देवदत्त और धन यह दोनों एक द्रव्य नहीं हैं, इस हेतुसे अर्थात् भिन्न द्रव्य होनेसे देवदत्त तथा धनमें सद्भूत (यथार्थ) संबन्ध नहीं है, अतएव असद्भूतभावना करनेसे उपचरितअसद्भूतव्यवहार है । और अन्य ( द्वितीय ) भेद जहां मिलित योग है; अर्थात् कर्मजनितसंबन्ध है; वहां होता है। जैसे “जीवके देह स्थित है" यहांपर आत्मा तथा देहका संबन्ध देवदत्त तथा उसके धनके संबन्धके तुल्य कल्पित संबन्ध नहीं है, क्योंकि-'विपरीतभावनासे निवर्तनीय यहांपर यह यावज्जीव स्थायो होनेसे अनुपचरित है; तथा जीव और देहके भिन्न विषयपनेसे असद्भूतव्यवहार है ॥७॥ अथोक्तविषयस्वामित्वमाह । अब उक्तविषयके स्वामित्वका वर्णन करते हैं । नयाश्चोपनयाश्च ते तथामूलनयावपि । इत्थमेव समाविष्टा नयचक्रेऽपि तत्कृता ॥८॥ भावार्थः-नय, उपनय तथा मूलनय जैसे हमने इस ग्रंथ में निरूपण किये हैं, इसी प्रकारसे नयचक्रनामक ग्रंथमें नयचक्रकारने भी वर्णन किये हैं ॥८॥ व्याख्या । एते नया उक्तलक्षणाश्च पुनरुपनयास्तथैव द्वौ मूलनयावपि निश्चयेनेत्यममुना प्रकार व नयचऽपि दिगम्बरदेवसेनकृते शास्त्रे नयचक्रऽपि तत्कृता तस्य नयचक्रस्य कृता उत्रादकेन समादिष्टा: कथिताः । एतावता दिगम्बरमतानुगतनय चक्रग्रंथपाठपठितनयोपनयमूलनयादिकं सर्वमपि सर्वज्ञत्रणीतसदागमोक्तयुक्तियोजनासमानतन्त्रत्वमेबास्ते न किमपि विसंवादितयास्तीति ॥८॥ १ विपरीतभावना अर्थात् जो भावना देवदत्त भावनासे यह सम्बन्ध रचा गया है। और उसके धन के विषयमें है; उससे उलटी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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