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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाकामालायाम् व्याख्यार्थ:-यह पूर्वकथित लक्षणसहित नय, उपनय तथा दो मूलनय जैसे हमने निरूपण किये हैं, निश्चयरूपसे ऐसे ही दिगम्बर श्रीदेवसेन आचार्यकृत नयचक्र शास्त्रमें भी उस नयचक्रके उत्पादक ( कर्ता ) अर्थात् दिगम्बर देवसेनाचार्यजीने कहे हैं । इससे यह वार्ता सिद्ध हुई कि-दिगम्बरमतके अनुगत (अनुसार) नयचक्रनामक ग्रन्थमें पठित नय, उपनय तथा मूलनयआदिक सब ही श्रीसर्वज्ञप्रणीत सत्शास्त्रकथित युक्तिकी योजनाओंसे समानतन्त्र अर्थात् हमारे सिद्धान्तके समान ही है; उसमें किंचित् भी विसंवादपनसे कथन नहीं है ॥ ८॥
अथ पुनरपि श्वेताम्बरदिगम्बरयोः समानतत्रत्वमुपदिशन्नाह ।
अब फिर भी श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरोंके मतमें समानतंत्रता (अविरुद्धशास्रता) है; इस बातका उपदेश देते हुये कहते हैं ।
यद्यपीहार्थभेदो न तस्यास्माकमपि स्फुटम् ।
तथाप्युत्क्रमशैल्यासौ दह्यते चान्तरात्मना ॥६॥ भावार्थ:-यद्यपि हमारे तथा श्रीदेवसेनजी दिगम्बरके कथनमें कुछ भी अर्थका भेद नहीं है । तथापि पाठकी शैलीको विपरीतरूपसे करने रचनेसे यह देवसेनजी ईर्षायुक्त अन्तरात्मासे संतप्त हो रहे हैं ॥९॥
व्याख्या। यद्यपि तस्य देवसेनस्य दिग्वाससोऽपि तथास्माकं श्वेतमिक्षणां स्फुटं प्रकटं यथा स्यात्तथेह द्रव्यादिपरिज्ञानोपयोगिनि नयविचारेऽर्थभेदो विषयभेदो नास्ति। उमयोरप्यर्थादेशे विषयाभेदत्वमेव शब्दादेशे किमपि पाठान्तरत्वान्न किमपि दोषः । यथा हि-अर्थे प्रयोजनवन्तस्तार्किकाः शब्दस्याप्रयोजकत्वात् । तथाप्यसो देवसेनो दिगम्बर उत्क्रमशैल्या विपरीतपरिभाषयार्थस्य तादृशत्वेन शब्दस्यातादृशत्वेन चोत्क्रमशल्या कृत्वान्तरात्मनान्तरङ्गपरिणामेनेालुत्वाद्दह्यते खिद्यते । ईलिवो ह्यन्तरुपतापपरा एव भवन्ति निष्कारणमेवेति । यतो "यद्यपि न भवति हानिः परकीयां चरति रासमो द्राक्षाम् । असमञ्जसं तु दृष्टवा तथापि परिखिद्यते चेतः ।।" इति वचनाद्यथोक्तभागवतसिद्धान्तशुद्धपरिभाषां त्यक्त्वा स्वकपोलकल्पितसंस्कृतमाषया श्रीवीतरागोक्तार्थविषयमङ्गीकृत्य नवीन्थं विरचय्य प्रभावं ख्यापयतीत्यर्थः ॥९॥
___ व्याख्यार्थः-यद्यपि उस दिगम्बर देवसेन तथा हम श्वेतभिक्षुओं (श्वेताम्बरों) के प्रकट जैसे होय तैसे अर्थात् स्पष्टरूपसे इस द्रव्यार्थिपदार्थोंके ज्ञान में उपयोगी नयके विचारमें अर्थका अर्थात् विषयका भेद नहीं है । अर्थात् श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनोंके ही अर्थके आदेशमें विषयका अभेद ही है, शब्दादेशमें (शब्दकी रचनामें) कुछ पाठभेद है; उस पाठभेदसे कुछ भी दोष नहीं है, क्योंकि-नैयायिकोंका प्रयोजन अर्थमें ही है, शब्दतो नैयायिकोंके लिये अप्रयोजक है। तथापि यह दिगम्बर देवसेनजी उत्क्रमशैली ( विपरीत परिभाषा ) अर्थात् अर्थकी समानता और शब्दकी असमानतारूप उत्क्रमशैलीसे अन्तरं
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