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________________ ११० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है; और आदि मैं हूँ यह उपचारसे कथन है, अर्थात् वस्त्रादिमें मत्त्व (आत्मत्व ) उपचारसे माना गया है । सम्बंध तथा सम्बन्धीकी कल्पना होनेसे यह सब व्यतिकर (जड़में आत्मबुद्धि तथा आत्मामें वखादि उलटा ज्ञान ) असद्भूतव्यवहारका विषय है; और यह वस्त्रआदि सब मेरे हैं; यहां पर वत्रआदि पुद्गल पर्याय हैं, उनमें मेरे हैं; इस सम्बन्धकी योजनासे भोज्य भोजक वा भोग भोगीके उपचारकी कल्पना मात्रमें तत्पर हैं, अर्थात् वस्त्रआदि भोज्य हैं; और आत्मा उनका भोग करनेवाला है; इस कल्पनाके विधायक हैं । यदि ऐसा न हो तो वृझोंके वल्कल (छाल) वा उनके अन्य पत्रादि जो शरीर के आच्छादनमें समर्थ हैं; तो भी उनमें ये मेरे वस्त्र हैं; अथवा ये मैं हूँ इत्यादि उपचार संबन्धकी कल्पना क्यों नहीं कहते । अतः जिन वस्त्रोंमें भोज्य भोजक है; वह ही वत्रआदि विजातीय आत्माआदिमें निज संबन्धसे उपचरित हैं; यह तात्पर्य है । अत्र 'वप्रदेशादयो द्विधा' इस वाक्यकी व्याख्या करते हैं। वप्रआदि मैं हूँ और प्रआदि देश मेरे हैं, ऐसा कहने वालोंको स्वजातीय तथा विजातीय उपचार से असदुभूतव्यवहार है, क्योंकि-वत्र, देशआदि जीव तथा अजोव इन दोनोंके समुदाय - रूप है ।। १५ ।। अथ संक्षेपमाह । अब संक्षेपसे नय तथा उपनयके विषयका उपसंहार करते हैं । इत्थं समे चोपनयाः प्रदिष्टाः स्याद्वादमुद्रोपनिषत्स्वरूपाः । विज्ञाय तान् शुद्धधियः श्रयंतां जिनक्रमाम्भोजयुगं महीयः ॥ १६ ॥ भावार्थ:- इस रीति से स्याद्वादशैली के रहस्यभूत नय तथा उपनय दोनोंका समानरूपसे उपदेश किया है; शुद्धबुद्धिके धारक उनको जान कर सर्वपूजनीय जिन भगवान्के चरणकमलका आश्रय लें ॥ १६ ॥ व्याख्या । इत्यमनया दिशा समे नयाश्च पुनः उपनयाः प्रदिष्टाः कथिताः । कोदृशास्ते स्याद्वादस्य श्रीनागमस्य या मुद्रा शैली तस्या उपनिषत्स्वरूपा रहस्यरूपाः सन्ति तान् सर्वानिनि विज्ञाय ज्ञात्वा शुद्धधियः निर्मलबुद्धयः श्रयन्तामङ्गीकुर्वतां कि जिनकनाम्मोनयुगं वीतरागवरणकवलं अत्तामध्यर्थः ॥ १६ ॥ इति श्रीकृतिभोजसागरविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थ :- इस पूर्वोक्त दिशासे अर्थात् पूर्वकथित रोति के अनुसार समानरूपसे नय तथा उपनय दोनोंका निरूपण किया है, वह नय तथा अतय कैसे हैं; कि ओजिदेव प्रणीत स्याद्वादी जो मुद्रा अर्थात् शैली है; उसके रहस्य ( सार ) भूत हैं; इस हेतुसे निर्मलबुद्धि जन उन सब नय तथा उपनयोंको भेद प्रभेदसहित जानकर सर्व पूजate श्रीजन भगवान के चरणकमलोंका आश्रय ग्रहण करें यही सूत्रका तात्पर्य है ॥ १६ ॥ Jain Education International इति श्रीआचार्योपाधिधारक पं० ठाकुरप्रसाद प्रणीत भाषाटीका समलङ्कृतायां द्रव्यानुयोगतर्कणाव्याख्यायां सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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