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द्रव्यानुयोगतर्कणा
[ १०९ पुत्रादिः' मैं ही पुत्रआदि हूं, यह संबन्ध कल्पना है। पुनः यह पुत्र, मित्र; स्त्रीआदि सब मेरे हैं; अर्थात यह सब मेरेसे ही संबन्ध रखनेवाले ( मेरे संबन्धी )हैं; अब यहां पुत्र आदिके विषय में “ अहम" मैं और मम" मेरे यह जो कथन है; सो उपचरितसे उपचार किया गया है, सो कैसे कि-निज वीर्य के परिणाम होनेसे पुत्रआदि अपने आत्माके ही भेद हैं; इसलिये पुत्रादिमें भेद होते हुये भी परंपराके हेतुसे अभेद संबन्धका उपचार कियागया और पुत्रादि निजशरीरकी पर्यायरूपतासे तो अपनी जाति है; परन्तु कल्पनामात्रसे ही मैं तथा मेरे यह व्यवहार होता है; यदि ऐसा न हो (यदि पुत्रादिमें अपना अंशमानना कल्पना मात्र न हो) तो अपने शरीरकी योजनासे जो पुत्रादिकका सम्बन्ध कहा गया है; उसी प्रकार मत्कुण (खटनल ) आदिसे भी शरीरका संबन्ध है; उनमें पुत्रादि व्यवहारका कथन क्यों नहीं करते ।। १४ ।।
अथ विजात्यानद्भः व्यवहारः अब विजातिसे असद्भत व्यवहारका निरूपण करते हैं ।
विजात्या किल तं वित्थ योऽहं वस्त्रादिरद्भुतः।
वस्त्रादीनि ममैतानि वप्रदेशादयो द्विधा ॥ १५ ॥ भावार्थः-उसको विजातिसे उपचरित असद्भ तव्यवहार जानो कि-जो मैं वस्त्र आदि हूँ; और वस्त्रआदि मेरे हैं; ऐसा मानता है; तथा वप्र ( पर्वतोंपर क्रीडाका स्थान ) प्रदेशआदि मैं हूं; तथा वप्र प्रदेशआदि मेरे हैं; इत्यादि मानता है; सो स्वजातिविजात्युपचरितासद्भूतव्यवहार है ॥ १५ ।।
व्याख्या । विजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारं प्रकटयति । किल इति सत्ये, तमसदभूतब्यवहारं विजात्योपचरितं विजानीत । यश्चाहं वस्त्रादिः, अहमिति सम्बन्धिवचनं वस्त्रादिरितिसम्बन्धवचनमहं वस्त्रादिरित्युपचरितम् । सर्वोऽपि ब्यतिकरोऽसद्भूतव्यवहार: सम्बन्धसम्बन्धिकल्पनत्वात् । अथ चैतानि वस्त्रादीनि मम सन्ति “अत्र हि वस्त्रादीनि पुद्गलपर्यायाणि ममेति सम्बन्धयोजनया भोज्यभोजकमोगमोगिकोपचारकल्पनमात्रपराणि भवन्तीति निष्कर्षः । अन्यथा वल्कलादीनां वानेयानां पुद्गलानां शरीराच्छादन-- समर्थानामपि मम वस्त्राणीत्युपचारसम्बन्धकल्पनं कथं न कथ्यते। वस्त्रादीनि हि विजातिषु स्वसम्बन्धो-- पचरितानि सन्तीति भावः । पुन: वप्रदेशादयो द्विधेति" वप्रादिरहम्, वप्रदेशादयो ममेति कथयता स्वजातिविजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो भवेत् । कथं वप्रदेशादयो हि जीवाजीवात्मकोमयसमुदायल्पाः मन्ति ॥ १५ ॥
व्याख्यार्थः-विजातिसे उपचरित असद्भूतव्यवहारको प्रकट करते हैं। सूत्रमें जो “किल" पद है; वह सत्य अर्थका वाचक है; इसलिये सत्य प्रकारसे उसको विजातिसे उपचरित असद्भूतव्यवहार जानो । जो 'अहं वस्त्रादि' मैं वस्त्र आदि हूँ; यहाँ पर अहं यह जो पद है, वह संबन्धीका वाचक है, ओर वत्रादि यह सम्बंध वाचक
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