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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् शंका नहीं कर सकते क्योंकि-विजातीय अंश ( जड़ता अंश ) में विषयता संबन्धसे उपचरितका ही अनुभव होता है; ऐसा अंगीकार करो, अर्थात् व्यवहारसे जैसा कहागया है; वैसा विचारो यह श्लोकका अर्थ है ।।१२।।
अथोपवरितासन तस्य लक्षणमाह । अब उपचरितअसद्ध तव्यवहारनामक तृतीय उपनयका लक्षण कहते हैं ।
यश्च केनोपचारेणोपचारो हि विधीयते।
स स्यादुपचरिताद्यसद्भ तव्यवहारकः ॥१३॥ भावार्थ:-जो एक उपचारके द्वारा दूसरे उपचारका विधान किया जाता है; वह उपचरितअसद्ध तव्यवहार कहा जाता है ।। १३ ।।
व्याख्या । यश्च पुनरेकेनोपचारेण कृत्वा द्वितीय उपचारो विधीयते । स ह्य पचरितोपचरितो जात उपचारितासद्भूतव्यवहार इति नाम लभते । इत्यर्थः ॥ १३ ॥
व्याख्यार्थः-जो कि-एक प्रकारसे उपचार करके पुनः द्वितीय उपचारका विधान किया जाता है, वह उपचरितोपचरित हो गया अर्थात् उसका उपचार होगया । वह उपचरित है; आदिमें जिसके ऐसा असद्ध तव्यवहार अर्थात् उपचरितअसद्भ तव्यवहार नामको प्राप्त होता है । यही सूत्रका तात्पर्य है ।। १३ ।।
अथोदाहरणमाह। अब इसका उदाहरण
स्वजात्या तं विजानीत योऽहं पुत्रादिरस्मि वै।
पुत्रमित्रकलत्राद्या मदीया निखिला इमे ॥१४॥ भावार्थ:-तुम स्वजातिसे उपचरित असद्ध तव्यवहार उसको जानो कि-जो मैं निश्वयसे पुत्रआदि हूं, और यह सब पुत्र, मित्र, स्त्रीआदि मेरे हैं; ऐसा मानता है ॥ १४ ।।
__ व्याख्या । तमुपचरितासद्भूतं स्त्रात्या निजशक्तयोपचरितसंबन्धेनासद्भ तव्यवहारं जानीत । संबन्धकल्पनं यथा "अहम पुत्रादिः" अहमित्यात्मपर्यायः, पुत्रादिरिति परपर्यायः, अहं पुत्रादिरिति सम्बन्धकल्पनम् । पुनः पुत्रमित्रकलत्राद्या निखिला इमे मदीयाः संबन्धिनः अत्र "अहं मम" चेत्यादि कथनं पुवादिषु तद्धयुपचरितेनोपचरितम् । तत्कथं-पुत्रादयो ह्यात्मनो भेदाः स्ववीर्यपरिणामत्वादभेदसम्बन्धः परम्पराहेतुतयोपचारितः । पुत्रादयस्तु शरीरात्मकपर्यायरोण स्वजातिः, परन्तु कल्पनमात्रम । न चेदेवं तहि स्वशरीरसंबन्धयोजनया सम्बन्धः कथितः पुत्रादीनां, तथैव मत्कुणादीनामपि पुत्रव्यवहारः कथं न कथित इति ॥ १४॥
व्याख्यार्थ:--स्वजातिसे अर्थात् निजशक्ति से उपचरित संबन्धसे उस असद्ध तव्यवहारको जानो; संबन्धकी कल्पनाका उदाहरण जैसे "अहं पुत्रादिः' पुत्र आदि मैं ही हूं । यहापर अहम् यह आत्माका पर्याय है, और पुत्रादि यह परपर्याय है, और "अह
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