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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १५३ व्याख्यार्थः-इस प्रकारसे जो पदार्थ अर्थात् भाव क्षणके संबन्धमें भी पर्यायसे परिणमनको प्राप्त होते हैं; वह उन्हीं भावोंसे त्रिविधलक्षणसहित संभवे हैं । और यदि इसके विपरीत मानो अर्थात् उक्त सिद्धादि भावोंको त्रिविधलक्षणसंपन्न न मानो तो वह अभावस्वरूप ही हो जायेंगे । यह श्लोकका अक्षरार्थ है। अब इसका विशेष निरूपण इस प्रकार है; जैसे श्लोकमें क्षण यह जो पद है; उससे द्वितीयआदि क्षणका ग्रहण है । प्रथम क्षणमें भावोंके साथ संबन्धसे परिणामका नाश प्राप्त हुआ और द्वितीय क्षणके संबन्धसे परिणाम उत्पन्न हुआ और दोनों क्षणके संबंधमात्रसे ध्रुवत्व है। इस प्रकार कालके संबंधसे त्रिविधलक्षणका संभव कहा गया । और यदि ऐसा न हो तो वस्तु (पदार्थ ) अवस्तु हो जायगा; क्योंकि-उत्पाद व्यय और धौव्य संबन्धजन्यता ही भाव (पदार्थ )का लक्षण है; और उस त्रिविधलक्षण संबंधके अभावमें तो पदार्थ शशविषाण (खरगोशके सींग )आदिके समान अभावरूपताको प्राप्त होगा ॥ १७ ॥ एकदा निजपर्याये बहुसंबंधरूपता । उत्पत्तिनाशयोरेवं संभवेनियता ध्रुवे ॥ १८ ॥ भावार्थः-एक कालमें निजपर्यायमें उत्पत्ति, नाश तथा ध्रुवके विषयमें अनेक संबन्धाकारता निश्चित रूपसे संभवती है ॥ १८॥ व्याख्या । एकस्मिन्काल एवमनया दिशा निजपर्याये जीवपुद्गलयोस्तथा परपर्याये आकाशधर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायानामेतेषां द्रव्याणामुत्पत्तिनाशयोध्रुवे बहुसंबन्धरूपता अनेकयोगाकारता नियता निश्चिता संभवेत् । यतश्च यावन्तो जिनपर्यायाः स्वपर्यायास्तावन्त उत्पत्तिनाशाश्च जायन्ते । ततश्च नियता नियामकता ध्रुवे ध्रौव्यस्वरूपे यावन्तो ध्रुवस्वमावास्तावन्तो नियताकाराः सन्ति । तथा च पूर्वापरपर्यायानुगत आधारांशस्तावन्मात्र एव भवेत् । तस्मादत्र संमतिः। तथा च तद्गाथा -एगसमयंमि एगो दवियस्स. बहयावि होंति उप्पायाः उप्पापसम विगमा ठिइयउस्सुगाओ नियमा । १। एकस्मिन्समये एकैकस्य द्रव्यस्य बहवोऽनेके उत्पादा उत्पत्तयो भवन्ति । तथा पुनरुत्पादसमानास्तत्त ल्यानाशपर्याया अपि ज्ञेयाः । इति व्यवहारमार्गः । उत्सर्गतो विशेषमावतः स्थिति: स्थिय नियता निश्चिता अस्ति। ध्रवत्वं नियतमित्यर्थः । उन्मजननिमजनभावशालिनो जलकल्लोला बहवो भवन्ति जलं तु तावम्मिताकारस्थित्या परिणमति । तत एव तेषां संभवादाविर्भावतिरोमावता भवतीति ज्ञेयम् ॥ १८ ॥ व्याख्यार्थः-एक कालमें इसी पूर्वोक्त मार्गसे निजपर्याय अर्थात् जीव पुद्गलके तथा परपर्याय अर्थात् आकाश, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय इनके ऐसे इन पांचों द्रव्योंके उत्पत्ति नाश तथा ध्रौव्यके विषयमें अनेक प्रकारके संबंधके आकार निश्चित रूपसे संभवते हैं । क्योंकि जितने अपने पर्याय हैं; उतने ही उत्पत्ति तथा नाश भी होते २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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