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________________ १९८ ] आमद्राजचन्द्रनशाजैनमालायाम् सकता है ? अपि तु नहीं कर सकता । अब यदि यह कहो कि अवहित जो कारणक्षण है वही कार्यक्षणको भी करता है तब भी रूपका देखना तथा मनका व्यापार करना इत्यादिके क्षणसहित रूपादिके विषय में तथा उपादानकारण जो आलोकादि हैं उनके विषय में कारणक्षण निश्चित है यह व्यवस्था कैसे घटित हो सकती है ? क्योंकि, अन्वयके विना शक्तिमात्रके विषयमें और उपादान निमित्तके विषयमें भी कथन करनेवालेका व्यवहार नहीं हो सकता । क्योंकि, वह उपादानता तो क्षणिक होनेसे उसी क्षणमें नष्ट होगयी फिर कार्यदशामें ( घटरूप अवस्थामें ) उपादान कारण ( मृत्तिका ) है यह व्यवहार कैसे हो सकता है ? । इसलिये उपादान कारणकी कार्यदशामें अनुवृत्ति रहती है यह वार्ता अवश्य मन्तव्य है । जो अन्वयपना है वही नित्य स्वभावत्व है ऐसा मानना चाहिये यह अर्थ है ।। १८॥ सर्वथा नित्यता नास्ति न स्यादर्थक्रिया तदा। दलस्य कार्यरूपत्वानुत्पन्नत्वं यिषीदति ॥१६॥ भावार्थ:-और सर्वथा कारणरूपकी नित्यता भी नहीं है क्योंकि सर्वथा नित्यता माननेमें अर्थक्रिया न होगी; क्योंकि कारणके सर्वथा नित्यपने में कार्यरूपसे उत्पत्ति नहीं घटित होती है ॥ १९ ॥ व्याख्या । यदि सर्वथा नित्यस्वभावो मन्तव्यः अथाप्यनित्यता अनित्यतास्वमावः सर्वथा नास्त्येवमङ्गीकारेऽर्थक्रिया न स्यादर्थक्रिया न घटते । यतो दलस्य कारणस्य कार्यरूपत्वानुत्पन्नत्वं विषीदति, कारणस्य कार्यरूपता परिणतिः कथंचिदुत्पन्नत्वमेवागतम् , सर्वथा अनुत्पन्नत्वं तु विषीदति विघटितं भवतीति । अपरं च यद्यवं कथ्यते कारणं तु नित्यमेव तद्ध त्ति कार्य त्वनित्यमेव । तदा कार्यकारणयोरभेदसंबन्धः कया युक्त्या घटते । भेदसंबन्धाङ्गीकारे तत्संबन्धान्तरादिगवेषणया अनवस्या भवेत् । ततः कथंचिदनित्यस्वभावोऽपि माननीयः । इति भावार्थः ॥ १९ ॥ व्याख्यार्थः–यदि सर्वथा (एकान्तरूपसे) नित्य स्वभावही माना जाय और अनित्य स्वभाव सर्वथा नहीं है ऐसा माना जाय तो अर्थक्रिया नहीं हो सकती । कारण कि कारणके कार्यरूप अनुत्पन्नता विघटती है अर्थात् कारणकी जो कार्यरूपमें परिणति है उससे कथंचित् उत्पन्नता हो आई और अनुत्पन्नता तो सर्वथा संगत नहीं होती है। और यदि ऐसा कहते हो कि कारण तो नित्यही है और उसमें रहनेवाला कार्य अनित्य ही है तब कार्य और कारणका जो अभेदसंबन्ध माना गया है वह किस युक्तिसे सिद्ध होगा ? क्योंकि नित्यता तथा अनित्यताका अभेदसंबन्ध नहीं हो सकता। तथा यदि कार्य और कारणका भेदसंबन्ध मानो तो वह संबन्ध किस संबन्धसे रहता है ? जो संबन्ध उसमें रहता है वह किस संबन्धसे है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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