________________
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः-नैयायिक द्रव्यादिक ( द्रव्य, गुण, पर्याय ) का भेद मानता है, क्योंकि "उत्पन्न हुआ द्रव्य क्षणभर गुणरहित रहता है" इस नैयायिकके कथनसे गुणोंकी उत्पत्ति भिन्न क्षणमें होती है । भावार्थ-नैयायिक ऐसा कहता है कि द्रव्य प्रथम निर्गुण उत्पन्न होता है, फिर उसमें समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले गुण उत्पन्न होते हैं, समान काल (एक ही समय) में द्रव्य तथा गुणकी उत्पत्ति होनेपर तो समान सामग्रीके होनेसे गुण और गुणी (द्रव्य) का भेद न होगा, क्योंकि कारणका भेद कार्यके भेदका नियामक होता है। अर्थात् कारणका भेद होनेसे कार्यका भेद अवश्य होता है। यदि कारणका भेद न हो तो कार्यका भी भेद नहीं होता, इसलिये जब गुण और गुणीकी सामग्री ही एक है तो उनका भेद नहीं होगा ।
और सांख्य द्रव्य आदिका अभेद मानता है, क्योंकि यह इसके पहले उत्पन्न हुआ यह इसके पीछे उत्पन्न हुआ, इस प्रकारके पूर्वापरभावका अभाव होनेसे पशुके दक्षिण तथा वामसींगकी भांति गुण और गुणीकी उत्पत्ति एक समयमें होती है, वह ही द्रव्य उसहोके पूर्वभावी तथा पश्चाद्भावी नहीं होता है। इसलिये जब द्रव्य उत्पन्न होता है तब ही उसमें प्राप्त रूपादिक गुण भी उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार द्रव्य आदिकी सांख्यमतमें अभेदता है, और जैन तो द्रव्य गुण तथा पर्यायपनेसे द्रव्य आदिके भेदको भी और अभेदको भी मानते हैं; और जो द्रव्य है वही गुण है, वही पर्याय है, जैसे कि घड़ा द्रव्यसे मृत्तिका है, गुणसे लाल रंगका है, पर्यायसे शङ्ककीसी ग्रीवाका धारक है। इस प्रकार अभेद मानते हैं । ऐसे भेद अभेद इन दोनोंको स्वीकार करते हुए जैन तो सब जगह विजयको प्राप्त होते हैं । सो ही कहा है कि
हे जिनेंद्र ! जैसे अन्यमतावलम्बियोंके प्रवाद परस्पर पक्ष तथा प्रतिपक्षपनेसे ईर्षाके धारक हैं उस प्रकार सब मतोंको समानतासे चाहता हुआ आपका जिनशासन पक्षपाती
नहीं है ॥१॥
(भावार्थः-कोई सर्वथा भेद मानता है, कोई सर्वथा अभेद मानता है, इस कारण दोनोंके सिद्धान्त परस्पर ईर्षाके धारक हैं। और अपेक्षासे भेद तथा अभेद इन दोनोंको स्वीकार करनेवाला जैनसिद्धान्त दोनों वादियोंको समान देखता है । किसीसे ईर्षा नहीं करता)
तथा और भी कहा है कि
जो दोष सर्वथा नित्यवादमें हैं वे ही सर्वथा एकान्त रूपसे अनित्यवादमें भी हैं, इसलिये परस्पर एक दूसरेके ध्वंस करनेवाले कंटक ( कंटक तुल्य मतों ) में अनेकान्तवादी होनेसे आपका प्रबल जिनशासन विजयको प्राप्त होता है । २ । इसलिये सवथा भेदनय पक्षके अभिनानको अभेदनय दूर करता है। अब भेद तथा अभेदमत के स्वामीका नाम दिखलाते हैं । कार्य असत् ( अविद्यमान ) दीखने में आता है और कार्य कारण तथा गुण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org,