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द्रव्यानुयोगतकणा
[ १७५ भावार्थ:-जो साधारणरूपसे सब द्रव्योंको अवगाहन अर्थात् रहनेको देता है; वह आकाशद्रव्य है; और लोक तथा अलोक इन दो प्रकारोंसे कहा जाता है ।। ८॥
व्याख्या । य आकाशास्तिकायः सर्वद्रव्याणां सावारणावगाहनं सामान्यावकाश दत्ते स द्रव्याकाशो लोकालोकप्रकारेणोच्यत इति । यतः सर्वद्रव्याणां यः सर्वदा साधारणावकाशदाता सोऽनुगत एक आकाशास्तिकायः कथितः सर्वाधार इति । यथा पक्षिणां गगनमिवेति व्यवहारनयदेशभेदेन भवेत् । तद्देशीयानुगत आकाश एव पर्यवसन्नः स्यात् । तथा च तत शोर्ध्वमागावच्छिन्नमूर्तामावादिना तव्यवहारोपपत्तिरिति वर्धमानाद्यक्त नानवद्यम् । तस्यामावादिनिष्ठत्वेनानुभूपमानद्रव्याधारांशापलापप्रसगात्, तावदानसंधानेऽपि लोकव्यवहारेणाकाशदेशप्रतिसंधयोक्तव्यवहाराच । आकाशस्तु लोकाकाशादिभेदेन द्विधोक्तः । यतः सूत्रम "दुविहे आगासे पणत्ते लोयागासेय अलोयागासेय" एतम्देशयम ॥८॥
व्याख्यार्थः-जो सब द्रव्योंको साधारण( सामान्य रूपसे अवकाश देता है; वह आकाशास्तिकाय लोक और अलोक इन भेदोंसे आकाशद्रव्य कहलाता है। क्योंकिजो सब द्रव्योंको सदा अवकाश देनेवाला है; वह अवकाशदातृतारूप एक ही आकाशास्तिकाय सर्वाधार कहा गया है । जैसे कि--पक्षियोंका आधार गगन ( आकाश ) है; यद्यपि यह व्यवहार नयदेशभेदसे होता है; परन्तु उन उन देशों में अनुगत जो एक आकाश है; उसीकी इस व्यवहारसे सिद्धि होती है । और उन उन प्रदेशों में ऊद्धर्वदेशावच्छेदसे मूर्तिमत्ताके अभावआदिसे अवकाशदातृत्वरूपसे आकाशके व्यवहारकी उपपत्ति होती है। ऐसा जो वर्धमानआदिका कथन है; सो अयुक्त वा दुष्ट नहीं है । क्योंकिआकाश अभाव (शून्य) रूपताकी प्रतीति है; तथा सर्वदा अनुभूयमान जो संपूर्ण द्रव्योंकी आधारताका अंश है; उसके अपलाप ( नाश ) होनेका प्रसंग है; और जहांतक गतिका संधान है; वहातक भी लोकव्यवहारसे आकाशदेशप्रतिसंधयोक्त व्यवहार है । और यह आकाश लोकाफाश, और अलोकाकाश इन भेदोंसे दो प्रकारका कहा गया है क्योंकि-"आकाश दो प्रकारके कहे गये हैं; एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश" ऐसा सूत्र है ॥८॥
अर्थनमेवार्थ मीमांसयन्नाह । अब इसी अर्थका विचार करते हुये कहते हैं ।
धर्मादिसंयुतो लोकोऽलोकस्तेषां वियोगतः ।
निरवधिः स्वयं तस्यावधित्वं तु निरर्थकम् ॥६॥ भावार्थः-धर्मादि द्रव्योंसहित जो आकाश है; वह लोकाकाश है; और जो धर्मआदि द्रव्योंसे शून्य है; वह अलोकाकाश है । और वह स्वयं अवधिरहित है; रमको अवधिका मानना निरर्थक ही है ॥९॥
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