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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् स्तिकायाभावप्रयुक्तगत्यमावेनालोके स्थित्यभाव एवं निगदतामलोकाकाशेऽपि कस्मिश्चिदपि स्थानके गति विना पुद्गलजीवद्रव्ययोनित्यस्थितिः प्रापयितव्या स्यात् । इत्थमिव द्वितीयं गतिस्थितिस्वातन्त्र्यपर्यायरूपं चास्ति । यथा गुरुत्वलघुत्वयोरेकस्यकामावरूपाद्विशेषग्राहकप्रमाणात् । तस्मात्तथेति । ततः कार्यभेदेऽपेक्षाकारण द्रव्यभेदोऽवश्यं मन्तव्यः । धर्मास्तिकायामावप्रयुक्तस्थित्यमावेन गति भावकथनाद्धर्मास्तिकायस्याप्यपलापो भवेत्, निरन्तरगतिस्वमावेन वा द्रव्यमकतुं वा शक्यं तर्हि निरन्तरस्थितिस्वभावेनापि कथं क्रियते । तस्माच्छीजिनवाणीनिष्कर्षमासाद्य धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायेति द्रव्यद्वयमसंकीर्णस्वभावेन भावनीयमिति ॥७॥
व्याख्यार्थः-यदि जीव तथा पुद्गलद्रव्यकी कहीं भी स्थितिका कारण अधर्म द्रव्य नहीं मानोगे तो सब जगह नियतरूपसे जीव पुद्गलकी स्थिति ही सिद्ध होगी कहीं भी गति न होगी तात्पर्य यह कि-यदि सब जीव तथा पुद्गलके प्रति साधारण रूपसे स्थितिका हेतुभूत अधर्मद्रव्यको नहीं कहते हो किन्तु धर्मास्तिकायके अभावप्रयुक्त जो गतिका अभाव है; उसीसे अलोकमें स्थितिका अभाव है; ऐसा कहते हो तो इस प्रकार कहनेवाले तुम्हारे मतमें अलोकाकाशमें भी किसी भी स्थानमें गतिके विना पुद्गल और जीवद्रव्यकी नित्य स्थिति प्राप्त करनी होगी यदि अलोकमें धर्म द्रव्य के न होनेसे गति नहीं होती ऐसा कहो तब तो अन्वय व्यतिरेकसे जैसे धर्मद्रव्यको गतिमें कारणता है; ऐसे ही स्थितिमें अधर्मद्रव्यको कारण मानना पड़ेगा इस प्रकार गतिकी स्थिति एक स्वतन्त्र पर्याय है; और उसका कारण अधर्मद्रव्य है; न किगतिका अभाव स्थिति और धर्मका अभाव अधर्म है; जैसे विशेषसत्ताग्राहक प्रमाण होनेसे गुरुत्व लघुत्वमें एकका एक अभावरूप है; ऐसे ही धर्म अधर्म भी भावरूप हैं; क्योंकि-एक( धर्म ) का कार्य गति; और दूसरे ( अधर्म ) का कार्य स्थिति है; तब कार्यके भेदसे अपेक्षाकारण द्रव्यका भी भेद अवश्य मंतव्य है; और धर्मास्तिकायके अभावप्रयुक्तस्थितिके अभावसे गतिभावका कथन होनेसे धर्मास्तिकाय द्रव्यका भी अपलाप ( अभाव ) हो जायगा यदि यह कहो कि-निरन्तर गतिस्वभावसे द्रव्य (द्वथणुकादिद्रव्य ) कि सिद्धि कैसे कर सकते हैं; तो निरन्तर स्थितिशीलतासे भी द्रव्यको सिद्धि कैसे कर सकते हैं। क्योंकि-जीव पुद्गलोंमें गति क्रिया बिना कुछ भी नहीं होसकता इस कारणसे श्रीजिनदेवकी वाणीसे तत्त्वको ग्रहण करके धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय यह दोनों द्रव्य असंकीर्ण (भिन्नभिन्न) स्वभाव हैं; ऐसी भावना अवश्य करनी चाहिये ।।७॥
अथाकाशद्रव्यस्य लक्षणमाविष्करोति । अब आकाशद्रव्य के लक्षणको प्रकट करते हैं ।
यो दत्ते सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहनम् । लोकालोकप्रकारेण द्रव्याकाशः स उच्यते ॥८॥
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