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व्याख्या | धर्मास्तिकायादिसंयुक्त आकाशो लोकास्तदितरस्त्वलोकः । स च पुनर्निरवधिरपारोऽलोकस्तस्या लोकस्य स्वयमात्मना अवधित्वमन्तर्गडु इति । कश्चिदाहात्र यथा लोकस्य पार्श्वेऽलोकस्यापि पारोऽस्ति तथैवाग्रेऽपि द्वितीयतटे पारो भविष्यतीति ब्रुवाणमुत्तरयति । लोकस्तु भावरूपोऽस्ति तस्यावधित्वं घटते परन्त्वग्रेऽलोकस्य केवलमभावात्मकस्यावधित्वं कथं कल्पते शशशृङ्गवत् । यथा असदविद्यमानं शशशृङ्ग न कुत्रापि निरीक्ष्यमाणं विद्यमानवदाभाति, तथैव तस्याव्यलोकस्य अविद्यमानस्यावधित्वं न घटामाटीकते । अथ च भावरूपात्मकत्वमङ्गीक्रियते तदा तु षडतिरिक्तमन्यद्रव्यं नास्तीति व्यवहारादाकाशदेशरूपस्य तु तदन्तत्वं कथयतां बुद्धयाघातो जायते । तस्मादलोकाकाशस्त्वनन्तएव मन्तव्य इति । आकाशो सान्तः शंसितो धर्माधर्मानुभावात् तस्य भावस्तरभावात्तदभावः । अलोकाकाशोऽपि सान्तो धर्माधर्मानुभावी भवन्नतिरिक्तद्रव्यत्वमापत्स्यते । तस्माद्यथोक्तमेव न्याय्यम् । यावता आकाशेन धर्माधम व्याप्य स्थिती तावता तत्परिणामशालिना आकाशेनापि भवितव्यम् । तयोरभावात्तस्याप्यभावः सुपरिशीलनीय इति ॥ ९ ॥
यशा
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
व्याख्यार्थः--धर्मास्तिकायआदि द्रव्योंसे संयुक्त जो आकाश है; वह लोकाकाश है; और उन द्रव्योंसे जो असंयुक्त है; वह अलोकाकाश है, और वह अलोक निरवधि अर्थात् अपार ( अन्तरहित ) है; क्योंकि उस अलोकके अपने स्वरूपसे अवधित्व कहना यह निरर्थक है; अर्थात् अलोकाकाश अवधिसहित है; यह कहना व्यर्थ है । अब यहाँ कोई शंका करता है; कि - " जैसे लोकाकाशके पास में अलोकाकाशका पार होता है; ऐसे ही आगे भी अर्थात् दूसरे तटमें भी उसका पार अवश्य होगा" ? इस प्रकारकी शंका करनेवालेको उत्तर देते हुऐ कहते हैं; कि - लोकाकाश तो धर्मादिद्रव्योंका अधिकरण होनेसे भावरूप है; इसवास्ते उसका तो अन्त घटित होता है; परन्तु उसके आगे धर्मादि द्रव्योंसे शून्य केवल अभावस्वरूप जो सुस्सेके सींगके समान अलोकाकाश है; उसके अवधिसहितता कैसे कल्पित हो सकती है। जैसे अविद्यमान जो सुस्सेका सींग है; उसको देखो तो वह कहीं भी विद्यमान पदार्थके समान देखनेमें नहीं आता है; ऐसे ही विद्यमान जो अलोक है; इसके भी मर्यादाका कथन करना है; सो संगत नहीं है । और यदि इस अलोकाकाशको भावस्वरूप अङ्गीकार करो तो छह द्रव्यसे अतिरिक्त (सिवाय ) कोई अन्य द्रव्य नहीं है; इस व्यवहारसे आकाशदेशस्वरूप जो अलोकाकाश है; उसके सान्तता कहनेवालोंकी बुद्धिका घात होता है । इसलिये अलोकाकाशको तो अनन्त (अपार) ही मानना चाहिये । आकाश अर्थात् लोकाकाशको जो सान्त कहा है; सो धर्म और अधर्मद्रव्यकी सामर्थ्य से कहा गया है; और इसीसे वह भावरूप है; और धर्मादिके अभाव से अलोकाकाश अभावरूप है। यदि अलोकाकाशको भी सान्त मानोगे तो वह अलोकाकाश धर्म अधर्मका अनुभावी ( सामर्थ्ययुक्त) होता हुआ छह द्रव्योंसे भिन्न द्रव्यताको प्राप्त हो जायगा | इसलिये
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