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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [५ आहारादि करनेमें प्रयत्न भी करे, परन्तु वह ज्ञानसे रहित होनेसे महान दोषभागी होता है तथा उसके चारित्रकी भी हानि होती है । इस विषयमें ऐसा कहा भी है,-उपदेशके ग्रन्थोंमें यह निरूपित है कि द्रव्यानुयोगके ज्ञानविना शुद्ध आहारादिके ग्रहणमें महान दोषोंके आरम्भ होनेकी संभावना है, इस हेतुसे तथा ज्ञानरहित होनेसे सज्जनोंकी निन्दादिसे चरणकरणानुयोग द्रव्यानुयोगकी अपेक्षासे लघु है, उस लघु चरणकरणानुयोगके दोषोंको कुशलबुद्धि जन यत्नपूर्वक द्रव्यानुयोगद्वारा जानते हैं ॥३॥ सति द्रव्यानुयोगेऽस्मिन्नाध्यकर्मादिदूषणम् ।। इत्युक्तं पञ्चकल्पाख्ये भाष्ये यत्तद्गुरोः श्रुतम् ॥४॥ भावार्थ:-इस द्रव्यानुयोगके ज्ञान होनेहीसे आधाकर्मादि (पाकादि कर्म अध्यव- . पूरकान्त) दूषण जाने जाते हैं, यह पञ्चकल्प नामक ग्रन्थमें तथा भाष्यमें कहा है और गुरुमुखसे भी ऐसा सुना है ॥४॥ - व्याख्या । अस्मिन् द्रव्यानुयोगविचाररूपे ज्ञानयोगे सति आध्यकर्मादिदूषणम । आधाकर्मादयोऽध्यवपूरकान्ताः षोडशपिण्डोद्गमविषया दोषास्तत्र आधानम् । आधा साधुनिमित्तं चेतसः प्रणिधानं यथा अमुकस्य साधोः हेतोर्मया भक्तादि पचनीयमिति आधया कर्मपाकादिक्रियया आधाकर्म तद्योगाद्भक्ताद्यप्याभाकर्म तदादिर्येषां दूषणं गुरुसमुदायान्तनिवसतो ज्ञानाम्यासवसतो मुनेन भवति ॥ एवं पञ्चकल्पभाष्ये यदुक्तम् तन्मया गुरोः सकाशात् श्रुतं कल्पाकल्पविचारस्तु अनेकान्तशास्त्रेणोक्तो यतो गाथाः-" आहा गुडाई भुजंति, अणमणो सकम्मुणा । उवलित्ते वियाणिज्जा, अणुवलित्ते विवा पुणो ॥१॥ एदे हिंदोहिं ठाणेहिं ववहारो ण विज्जई । एदे हिंदोहिं ठाणेहिं अणायारंतु जाणए ॥२॥" द्वितीयाङ्गस्य प्रथमाध्ययने । किञ्चिच्छुद्ध कल्पमकल्पं स्यात् स्यादकल्पमपि कल्पं पिण्डः । शय्या वस्त्रं भेषजाद्य वा देशं कालं पुरुषमवस्थामुपयोगशुद्धपरिणामान् प्रसमीक्ष्य भवति कल्पं नैकान्तात्कल्पने कल्पम् ।२। इति प्रशमरतो ॥४॥ व्याख्यार्थः-सब पदार्थोंके ज्ञान करानेवाले इस द्रव्यानुयोग विचाररूप ज्ञानयोगके होनेपर ही आधाकर्म आदि दूषण, अर्थात् आधाकर्मसे आदि लेकर अध्यवपूरकान्त षोडश- ( १६ ) दोष आहार ग्रहण करनेसे उत्पन्न होते हैं । उन सोलह दोषोंमेंसे साधुके पाकादिनिमित्त ( चित्तकी तत्परता ) को आधाकर्म कहते हैं । जैसे-अमुक साधुके लिये मुझे भात पकाना है । यहाँ "आधया पाकादिक्रियया कर्म इति आधाकर्म" पाक आदि क्रियासे जो कर्म किया जाता है उसको आधाकर्म कहते हैं। उस आधा क्रियाके योगसे भक्त (भात ) आदि अन्न सिद्ध किया जाता है, उसको भी आधाकर्म कहते हैं । उस आधाकर्म आदिके दोष गुरुओंके समुदायमें निवास करते हुए मुनिको ज्ञानके अभ्यासके वशसे नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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