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शुद्धान्त
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कुछ सार नहीं है, अर्थात् चरणसप्तति और करणसप्ततिका सार केवल द्रव्यानुयोग ही है, और वहीं पण्डितजनों ( सम्यग्दर्शन आदि सहित जनों )को प्रिय है, क्योंकि आत्मज्ञानद्वारा मोक्षका कारण द्रव्यानुयोग ही है, उसीसे स्वमतका स्थापन तथा परमतका खण्डन होता है, यह वार्ता संमति ग्रन्थमें स्पष्ट रीतिसे दर्शाई गई है। "चरणानुयोग तथा करणानुयोगके ज्ञानसे संपन्न भी जन अपने तथा अन्यके शास्त्रीय सिद्धान्त-ज्ञानके व्यापारसे सर्वथा वर्जित रहते हैं, क्योंकि वे चरणानुयोग तथा करणानुयोगके सारभूत निश्चय शुद्ध द्रव्यानुयोगको नहीं जानते" ॥ १ ॥ यह गाथा सम्मति ग्रन्थमें कही गई है । इसी हेतुसे चरणानुयोग और करणानुयोगका मूल ( मुख्य सिद्धान्त ) जाननेका उपाय द्रव्यानुयोग ही यहांपर कहा गया है ॥२॥
शुद्धान्नादिस्तनुर्योगो महान् द्रव्यानुयोगजः ।
इत्थं षोडशकाज्ज्ञात्वा विदधीत शुभादरम् ॥३॥ भावार्थः-शुद्ध आहार आदिका ग्रहण करना, अर्थात् चरण-करणानुयोगरूप योग लघु है और द्रव्यानुयोग नामक योग महान है, इस प्रकार षोडशक नामके उपदेशग्रन्थसे जानकर शुभ मार्गमें आदर करना उचित है ।।३।।
व्याख्या । शुद्धान्नादिः शुद्धाहारग्रहणमर्थात् चरणकरणानुयोगाख्यो योगो द्विचत्वारिंशद्दषणरहितपिण्डग्रहणो योगस्तनुर्लघु: कथितः । तथा द्रव्यानुयोगः । स्वसमयपरसमयपरिज्ञानं तदाख्यो योगो द्रव्यानुयोगजो योगो महान् महत्तरः कथितः । अत्र साक्षित्वमुपदेशपदादिषु ग्रन्थेषु वर्तते । ततो ज्ञात्वा शुभे पथि प्रवर्ततां बाह्यव्यवहारप्राधान्यं ज्ञानस्य गौणता यत्र भवति सोऽघुममार्गः । १ । ज्ञानस्य प्राधान्यं व्यवहारस्य गौणता यत्र स उत्तममार्गः। २ । अत एव ज्ञानादिगुणहेतुगुरुकुलवासरहितस्य शुद्धाहारादियत्नवतोऽपि महान् दोषश्चारित्रहानिश्च जायते । यदुक्तम् षोडशके गुरुदोषारम्भितया लब्धकरणम् । यत्नतो निपुणधीभिः सन्निन्दादेश्च तथा ज्ञायते यन्नियोगेन । ३ । . व्याख्यार्थः-शुद्ध शोधित आहारसेवन, अर्थात् शास्त्रप्रोक्त ४२ दोषोंसे वर्जित भोजनग्रहण आदिरूप जो चरण तथा करणानुयोगरूप योग है वह लघु है और स्व तथा परसमयके ज्ञानरूप जो द्रव्यानुयोगरूप योग है वह अतिमहान् कहा गया है। इसी विषयकी साक्षिता उपदेशपद आदि ग्रन्थोंमें विद्यमान है । उन ग्रन्थोंसे द्रव्यानुयोगको श्रेष्ठतर जानकर शुभ मार्गमें ही आदरसे प्रवृत्त होना चाहिये । जहाँ लौकिक व्यवहारोंकी प्रधानता हो और ज्ञानको गौणता हो वह अशुभ मार्ग है ।। १ ।। और जहाँ ज्ञानकी प्रधानता तथा लौकिक व्यवहारकी गौणता है वह उत्तम वा शुभ मार्ग है ॥ २ ॥ इसी कारणसे ज्ञान आदि गुणोंका हेतुभूत जो गुरुकुलमें निवास है उससे रहित पुरुष चाहे शुद्ध
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