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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
होते । इस प्रकार पञ्चकल्पभाष्य में जो कहा है वह मैंने गुरुमुखसे सुना है और कल्पाकल्पका विचार तो अनेकांतशास्त्र से कहागया है । इस विषय में ये गाथा हैं । उपलिप्त हो अथवा अनुलिप्त हो, अन्योऽन्यकर्मसे अनभिज्ञ (अज्ञानी जन ) आधाकर्मगत पाप अवश्य भोगते हैं ॥१॥ क्योंकि ये दोष हैं, ये दोषोंके स्थान हैं, इन व्यवहारोंको द्रव्यानुयोगज्ञानसे रहित जन नहीं जानते और गुरुकुलनिवासी द्रव्यानुयोगज्ञाता मुनि दोष तथा दोषस्थानोंको जानता है ॥२॥ द्वितीयाङ्गके प्रथम अध्ययन में ऐसा वर्णित है कि कोई वस्तु शुद्धकल्प भी अकल्प हो सकती है; और अकल्प भी कल्प हो सकती हैं। जैसे आहार, शय्या, वस्त्र, पात्र, औषध, भोज्य पदार्थ, देश, काल, पुरुष, अवस्था, ये सब उपयोगसे शुद्ध परिणामोंको देखकर कल्प ( योग्य वा शुद्ध ) होते हैं, किन्तु सर्वथा कोई पदार्थ अपने स्वरूपसे ही शुद्ध वा योग्य कल्पित नहीं हो सकता ||२|| ऐसा प्रशमरति नामक ग्रन्थमें कहा है ||४||
बाह्यक्रिया बहिर्योगचान्तरङ्गक्रियापरः । बाह्यहनोऽपि ज्ञानाढ्यो धर्मदासैः प्रशंसितः ॥ ५ ॥
भावार्थ:: - बाह्य क्रियाको बहिर्योग कहते हैं, और जो अन्तरङ्ग क्रिया है उसको अन्तरङ्गयोग कहते हैं, किन्तु बाह्यक्रियासे हीन (शून्य) होनेपर भी यदि ज्ञानसे पूर्ण हो तो वह धर्मदासोंसे प्रशंसित है ||५||
व्याख्या । बाह्यक्रिया आवश्यकादिरूपा बहिर्योगोऽस्ति |१| च पुनः । अन्तरङ्गक्रिया च स्वसमयप रसमयपरिज्ञानरूपा ज्ञानक्रिया, अपरो द्रव्यानुयोगोऽस्ति । अन्तरङ्गयोगो ज्ञानक्रिया । एवं द्विविधो योगस्तत्र बाह्यक्रियाहीनोऽपि ज्ञानाढ्यो ज्ञानाधिकः साधुः । उपदेशमालायां व्याख्यातो यतः - " नाणाहि. बोवरचरणहीणो विपयवेणपभासंतो । णयंदुक्खरं करतो सुट्ठवि अप्पागमो पुरिसो | १| तहा हीणस्स विसुपरूवगस्स नाणाहि जस्स कायव्व" तस्मात् क्रियाहीनस्यापि ज्ञानिनोऽवज्ञा न कर्तव्या । ज्ञानयोगाच्छासनप्रभावको ज्ञातव्यः कश्चिदेवं कथयिष्यति यत् क्रियाहीनः । ज्ञानाधिको भव्य उक्तस्तद्दीपकसम्यक्त्वापेक्षया परं क्रियाविनैकेन ज्ञानेन स्वस्योपकारो न जायते दीपवत् । इति शङ्काकारं प्रत्युत्तरयति । द्रव्यादिज्ञानमेव शुक्लध्यानमतो मोक्षकारणं तत उपादेयमेव ॥ ५ ॥
व्याख्यार्थः– आवश्यक आदिरूप जो बाह्य क्रिया है वह बहिर्योग हैं, और स्वसमय तथा परसमयके ज्ञानरूप जो ज्ञानक्रिया है वह अभ्यन्तर अर्थात् द्रव्यानुयोग है, वह अन्तरङ्ग योग अथवा ज्ञानक्रिया हैं । इस रीतिसे अन्तरङ्गयोग तथा बहिर्योग भेदसे दो प्रकारका योग कहा गया है । उनमें से बाह्य क्रिया अर्थात् बहिर्योगसे हीन भी पुरुष हो, परन्तु ज्ञानपूर्ण अर्थात् अधिक ज्ञानसंयुक्त हो तो वह साधु है । क्योंकि वह साधुरूपसे उपदेशमालामें प्रख्यात है । यथा गाथा, -चरणकरणानुयोग अर्थात् बाह्यक्रियासे हीन भी शुद्ध उपदेश
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