SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [७ ज्ञानमय वचनको कहते हुए, और दुष्कल्मषको करते हुए ज्ञानसे पूर्ण आत्मज्ञानी पुरुष निज ज्ञानसे ही साधु है, तथा विशुद्धज्ञानसे हीन होनेसे भी बाह्य क्रियासे संपन्न होनेपर भी वह साधु है, क्योंकि शरीर ज्ञान ही है, इस कारण क्रियाहीन भी ज्ञानी पुरुषका अनादर नहीं करना चाहिये, क्योंकि ज्ञानके योगसे वह सबके ऊपर आज्ञा करनेका प्रभाव धारण करता है, ऐसा समझना चाहिये। अब कोई यहांपर ऐसा कहता है कि क्रियाहीन और अधिक ज्ञानसम्पन्नको जो भव्य कहा है वह 'दीपकसम्यक्त्वकी अपेक्षासे है; क्योंकि, क्रियाके विना केवल ज्ञानमात्रसं अपने आत्माका कुछ भी उपकार नहीं होता, जैसे-दीपक यदि अपना ही प्रकाश न करे तो अन्य घटपट आदिका प्रकाश कैसे कर सकता है ? इसप्रकार शंका का उत्तर ग्रन्थकार देते हैं कि द्रव्य आदि पदार्थोंका ज्ञान ही शुद्ध ध्यान कहा गया है, और वही मोक्षका कारण होनेसे उपादेय है ॥५॥ द्रव्यादिचिन्तया सार शुक्लध्यानमवाप्यते । आद्रियध्वममु तस्माद् गुरुशुश्रूषया बुधाः ॥६॥ भावार्थ-द्रव्य आदि पदार्थोंकी चिन्ता से सबका सारभूत शुक्लध्यान प्राप्त होता है, इस हेतुसे हे बुधजनो ! गुरुजनोंकी सेवा आदिसे आदरपूर्वक द्रव्य आदि पदार्थोके ज्ञानके उपार्जनमें आदर करो ॥६॥ व्याख्या । द्रव्यादिचिन्तया षड्द्रव्यचिन्तनेन सारं प्रधानं शुक्लध्यानमवाप्यते, किं च आत्मद्रव्यस्य गुणपर्यायभेदचिन्तया शुक्लध्यानस्य प्रथमः पादो भवति । तथा तस्यैव द्रव्यस्य गुणपर्याययोरभेदचिन्तया द्वितीयपादो भवति । एवं शुद्धद्रव्यगुणपर्यायमावनया सिद्धिसमाप्तिर्जायते । ततो द्रष्यचिन्ताशुक्लध्यानं फलं । तेन संसारापगमः । यतः प्रवचनसारेऽप्युक्तम् । “जो जाणदि बरहन्ते दबत्त गुणत्त पजयत्ते हिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।१" तस्मात कारणात मो बुधाः । गुरुशुश्र षया गुरुसामीप्येन अमु द्रव्यानुयोगमाद्रियध्वमादरं कुरुध्यमिति, गुरु' त्यक्त्वा स्वेच्छया मा भ्रमत ॥६॥ अथ ज्ञानं विना चारित्रमात्रेण ये सन्तुष्टाः सन्ति तान् हितशिक्षया सम्बोध्यति । व्याख्यार्थः-द्रव्य आदि षट् पदार्थोकी चिन्ता अर्थात् पूर्ण विचारसे प्रधानभूत शुक्लध्यान प्राप्त होता है। और आत्मद्रव्यके गुण तथा पर्यायोंके भेदके विचारसे शुक्लध्यानका प्रथम पाद सिद्ध होता है, तथा उसी आत्मद्रव्यके गुण तथा पय्योयोंके अभेदविचारसे शुक्लध्यानका द्वितीय पाद सिद्ध होता है। और इसी रीतिसे शुद्ध द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंकी भावनासे सिद्धिकी समाप्ति होती है । इसलिये द्रव्यको चिन्ताका शुक्लध्यान फल है, और इस शुक्लध्यानकी प्राप्तिसे संसारका नाश होता है; क्योंकि, ऐसा ही प्रव दीपक में जैसे दूसरेके प्रकाश करनेका सामर्थ्य रहता है ऐसे ही अपनेको भी, न कि केवल अन्य पदार्थोके प्रकाश करने मात्रका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy