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________________ श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् चनसारमें भी कहा है:-जो कोई अर्हन् भगवान्को द्रव्य, गुण तथा पर्यायरूपसे जानता है वही आत्माको भी जानता है, क्योंकि द्रव्य, गुण तथा पर्यायरूपसे आत्मज्ञानी पुरुषका मोह लयको प्राप्त होता है ॥१॥ इस कारण हे बुधजनो ! गुरुके समीप जाकर भक्ति शुश्रूषादि द्वारा इस द्रव्यानुयोगके ज्ञानसंपादनमें आदरसे लगो। तात्पर्य यह है कि गुरुसे आदरपूर्वक इसके ज्ञानको ग्रहण करो, और गुरुको त्याग कर अपनी इच्छासे भ्रमण न करो ॥६॥ ___अब जो ज्ञानके बिना चारित्र मात्रसे संतुष्ट हैं उनको हितदायक शिक्षासे संबोधन करते हैं - अस्य येनेक्षितः स्तायोऽत्रौघेन प्रेम यस्य वा । द्वौ निम्रन्थाविमौ ख्यातौ नान्य इत्याह सम्मतिः ॥७॥ भावार्थ:-जिस पुरुषने इस द्रव्यानुयोगरूपी समुद्रका अधोभाग देखा है, अथवा जिसका इसमें सामान्यरूपसे अनुराग है, ये दो प्रकारके पुरुष निर्ग्रन्थ अर्थात् साधु कहे गये हैं न कि अन्य, ऐसा सम्मति ग्रन्थ कहता है ॥ ७॥ व्याख्या। अस्य द्रव्यानुयोगसमुद्रस्य स्तायस्तलस्पर्शनं येन ईक्षितो विलोकितः सम्मत्यादितग्रन्था - ध्ययनेन गीतार्थो जातः स एव एकः प्रशस्यः । तथा अत्र द्रव्यानुयोगे ओधेन सामान्य प्रकारेण यस्य प्रेम रागोऽस्ति गीतार्थनिश्चयः सोऽपि प्रशस्यः । इमो द्वौ निम्रन्थौ साधू ख्याती कथितौ । आभ्यामपरस्तृतीयः कश्चित्साधुरपि नास्ति, इत्युक्ति सन्मतिग्रन्थ आह । यतः-"गीयत्थोयविहारो वीओगीयत्थ निस्सओ मणिओ । इतोतइयविहारो णाणुमाओ जिणवरेहिं ॥१॥" एतावन्मात्रो विशेषोऽस्ति । या चरण करणानुयोगदृष्टिनिशीथकल्पव्यवहाराध्ययनेन जायते सा जघन्या दृष्टिः, या च दृष्टिर्वादाध्ययनेन जायते सा मध्यमा दृष्टिः । २ । या पुनः समस्तश्र तनिष्कर्षज्ञानरूपेण जायते सा उत्कृष्टा दृष्टि: १३। एवं जघन्यमध्यमोत्कृष्टा दृष्टयस्तिस्रस्तद्विशेषेण गीतार्था अपि त्रयः । अत्र द्रव्यानुयोगदृष्टिः सम्मत्यादितर्कशास्त्रपारीणताख्या उत्कृष्टा । तथा तन्निश्चया द्वितीया दृष्टिः । एतद्दृष्टिद्वयपरौ द्वावेव निर्ग्रन्थौ स्तोऽपरः कोऽपि साधुर्नेति भावः ॥७॥ व्याख्यार्थ:-जिस महा उद्योगी पुरुषने इस द्रव्यानुयोगरूप महासमुद्रके तलस्पर्शको गोता मारकर देखा है, अर्थात् सम्मति आदि तर्कग्रन्थोंको पूर्णरूपसे पढ़कर सिद्धान्तरहस्यका ज्ञाता हुआ है वही एक पुरुष प्रशंसनीय है। अथवा इस द्रव्यानुयोगमें जिसका सामान्य प्रकारसे प्रेम है, अर्थात् तर्कके अध्ययनपूर्वक अनुरागसे सिद्धान्तरहस्यको जिसने निश्चय किया है, ये ही दो प्रकारके पुरुष निर्ग्रन्थ साधु प्रख्यात हैं अर्थात् शास्त्रोंमें कहे गये हैं । इन दोनोंसे अन्य कोई तृतीय साधु नहीं है, ऐसा कथन सम्मति ग्रन्थका है । उसकी गाथा यह है-गीतार्थ तथा गीतार्थ निश्चय इन दोनों के सिवाय किसी तीसरे को श्री जिनेन्द्रने साधु नहीं कहा है ॥ १॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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