SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ९ इसमें इतनी विशेषता है कि जो निशीथकल्प ( अर्द्धरात्रिके तुल्य अन्धकारमय ) व्यवहारके अध्ययनसे चरणकरणानुयोगदृष्टि उत्पन्न होती है वह जघन्य अर्थात् निकृष्ट दृष्टि है, जो दृष्टिवाद शास्त्र के अध्ययनसे उत्पन्न होती है वह मध्यमा दृष्टि है, और समस्त शास्त्रोंके तत्वज्ञानसे उत्पन्न जो दृष्टि है वह उत्कृष्ट अर्थात् उत्तम दृष्टि है ||३|| इस प्रकार जघन्य मध्यम तथा उत्तम भेदसे तीन प्रकारकी दृष्टियें हैं, और उन उन दृष्टियोंके विशेषसे गीतार्थ भी तीन ही प्रकारके हैं । इनमें संमति आदि तर्क शास्त्रों में पारीणता ( तर्कशास्त्र में पारगामिता ) नामवाली जो द्रव्यानुयोगरूप दृष्टि है वह उत्तम है, और उस तर्कशास्त्रको निश्चय करनेवाली द्वितीया दृष्टि है । इन दोनों दृष्टियों में परायण दोनों प्रकारके ही पुरुष निर्ग्रन्थ साधु हैं, इनसे भिन्न कोई साधु नहीं है, यही पूर्वोक्त वाक्यका अभिप्राय है ||७|| अथ द्रव्यानुयोगप्रत्याप्त्या निजस्यात्मनः कृतकृत्यतां दर्शयन्नाह । अब द्रव्यानुयोगकी प्राप्तिसे अपने आत्माको कृतार्थ दिखाते हुये कहते हैं । तस्माद्गुरुपदाधीनो लीनश्चास्मिन्प्रतिक्षणम् । साधयामि क्रियां यां मे महत्याधारता हि सा ॥ ८ ॥ भावार्थ:-क्रयानुयोग के भी बलवत्त्वके हेतु गुरु हैं, इस हेतुसे गुरु के चरणोंके आश्रित होकर तथा प्रतिक्षण इस द्रव्यानुयोगरूप योग में लीन होकर जिस क्रियाको मैं सिद्ध करता हूं उसमें वही मेरी बड़ी आधारता है ॥८॥ व्याख्या । तस्मादिति । ततः कारणात् द्रव्यानुयोगबलवत्ताहेतुगु रुस्तस्य पदयोश्चरणयोराधीनः । शुश्रूषापरो विनयादिप्रमन्नो गुरुर्ज्ञानमेव दत्त इति । पुनः अस्मिन् द्रधानुयोगे प्रतिगमनुपमयं लीनी यां चरणकरणानुयोगरूपां क्रियां साधयामि सा एव मे महती महीयसी आवारता । एतावता तादृक् क्रियारहितः परं गुरुसेवी ज्ञानप्रिय इच्छायोगाधिकारी भवति । यतः - "कर्तुमिच्छो: श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोपि प्रमादिनः । विकलो धर्मयोगो य इच्छायोग उदाहृतः” |१| ललितविस्तरादौ ||८|| व्याख्यार्थः- द्रव्यानुयोगजनित ज्ञानके सर्वोत्कृष्ट तत्त्व सिद्ध करने में दयालु गुरु ही मुख्य कारण हैं, इस कारणसे श्रीगुरुमहाराजके चरणकमलोंके आधीन अर्थात् उनकी शुश्रूषा विनय आदिमें ही सदा तत्पर होकर ( क्योंकि विनय आदिसे प्रसन्न गुरु ज्ञान देते हैं) फिर इस द्रव्यानुयोगमें प्रतिक्षण लीन होकर जिस चरणकरणानुयोगरूप क्रियाको मैं सिद्ध करता हूँ वह क्रियाही मेरेलिये महान् आश्रय है । इतने कथनसे यह सिद्ध हुआ कि उस क्रियासे रहित, केवल गुरुसेवी, तथा ज्ञानप्रिय जन इच्छायोगका अधिकारी होता है । क्योंकि - शास्त्रीय अर्थके सिद्ध करनेकी इच्छावाले ज्ञानी ऐसे भी २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy