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________________ १०] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रमादी पुरुषका जो विकल धर्मयोग है वही इच्छायोग कहा गया है ॥१॥ ऐसा वचन ललितविस्तर आदि ग्रन्थमें है ॥८॥ __ एवं इच्छायोगे स्थितानां परोपकारार्थ द्रव्यानुयोगविचारं कथयामः । पुनरेतावतैव संतुष्टिर्न कर्तव्या । विशेषार्थिना गुरुसेवा न मोक्तव्या । एवं हितशिक्षा कथयन्नाह । इस प्रकार जो इच्छायोगमें स्थित हैं उनके परोपकारार्थ द्रव्यानुयोगका विचार कहते हैं, क्योंकि इच्छायोगमें स्थितिमात्रसे प्राणीको सन्तोष नहीं करना चाहिये, और विशेष अर्थके अभिलाषी जनको गुरुसेवा कदापि नहीं त्यागनी चाहिये । इस प्रकारकी हितकारिणी शिक्षाको कहते हुये ग्रन्थकार कहते हैं:तत्त्वार्थसंमतिमुखेषु महाश्रु तेषु द्रव्यानुयोगमहिमा कथिता विशेषात् । तल्लेशमात्रमिह पश्यत सत्प्रबंधे सर्वादरेण किल तिष्ठत तीर्थवाक्ये ॥९॥ इति श्रीद्रव्यानुयोगतर्कणायां प्रथमोऽध्यायः ॥॥ भावार्थ-तत्त्वार्थसंमति आदि महा शास्त्रों में द्रव्यानुयोगकी महिमा विशेष रूपसे वर्णन की गई है, अतः हे बुधजन ! इस लघु प्रबन्धमें अर्थात् इस द्रव्यानुयोगतर्कणा नामक ग्रन्थमें उनका यत्किचित् लेशमात्र तुम लोग देखो, और सर्वथा आदर तथा विश्वासपूर्वक तीर्थ (शास्त्रवक्ता गुरु) के वाक्यमें स्थित रहो ॥९॥ द्रव्यानुयोग तर्कणामें प्रथम अध्याय पूर्ण हुआ। व्याख्या । तत्त्वार्थ संमतिप्रधानेषु 'महाब तेषु' महाशास्त्रोषु द्रव्यानुयोगमहिमा 'कथितः' । विशेषाद्विस्तरेण तेष ग्रंथेषु प्रकाशितः । तेषाँ ग्रंथोक्तानां वाक्यानां लेशमात्रमल्पमात्रम । इहैतस्मिन्वक्ष्यमाणे सत्प्रबंधे द्रव्यानुयोगतर्कणायां 'पश्यत' विलोकयत । "किल' निश्चयेन तीर्थ-वाक्ये, तीर्थों गुरुस्तस्य वाक्य द्रव्यादिपदसमूहस्तस्मिन् तीर्थवाक्ये 'सर्वादरेण' सर्वप्रयत्नेन 'तिष्ठत' आदरं कुरुत । परन्तु परमार्थतो गुरुवाक्ये स्थातव्यम, अल्पमति ज्ञात्वा अहंकारो न कर्तव्यः । यथा अधनेन धनं प्राप्तं तृणवन्मन्यते जगत् इति दृष्टांतात् । अत एव उपरितनाश्चत्वारो नया अतिगंभीरार्था यस्य कस्यापि स्मृतिविषयं न यान्ति । तेन सिद्धांते प्रथमं न दर्शितास्तथा रहस्यं च गुरुभक्तायव देयमित्युक्तत्वात् ।। इति श्रीद्रव्यानुयोगतर्कणायां कृतिभोजविनिर्मितायां प्रथमोऽध्यायः सूचनार्थमुपदर्शितः । व्याख्यार्थ-हे बुधजन ! तत्त्वार्थसंमति आदि प्रधान महाशास्त्रों में विस्तारसे द्रव्यानुयोगकी महिमा प्रकाशित है, किन्तु उन ग्रन्थोंमें कथित वाक्योंका अति अल्प लेशमात्र इस वक्ष्यमाण लघु सत्प्रबन्ध अर्थात् द्रव्यानुयोगतकणा नामक ग्रन्थमें, आप लोग देखो, और निश्चयसे तीर्थरूप जो गुरु हैं, उनके वाक्यरूप जो द्रव्य आदि पदोंका समूह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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