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________________ ५६ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सप्तभंगीका नियम नियामक नहीं दीख पड़ता इस प्रकार पूछे हुए श्रीगुरुमहाराज कहते हैं कि हे शिष्य ! परमार्थ से तेरा कहना सत्य है, क्योंकि जो तुमने गौण मुख्य व्यवहारका प्रदर्शन किया है वहां तो एक ही नयके अर्थकी मुख्यतासे विधि है और अन्य सब ही नयका निषेध है और इस प्रकार से विधि और निषेधको मूलभागमें ग्रहण करके पुनः अनेक भंग किये जाते हैं ऐसी हमारी सम्मति है । और ऐसा कहा भी है कि " संपूर्णनयों के अर्थकी प्रतिपादकता अर्थात् जिसके द्वारा संपूर्ण नयोंके अर्थका कथन किया जाय उसके पर्य्यायाधिकरण वाक्यको प्रमाणवाक्य कहते हैं" इस प्रकारके लक्षणसे जहां संपूर्ण पदार्थों का विवेचन होता है वहां स्याद्वादले चिन्हित अर्थात् स्यात् शब्दसे युक्त सम्पूर्ण नयों के अर्थोंके समूहका धारण करना एक भंगमें भी निषिद्ध नहीं हैं इस कारणसे व्यंजन पर्यायके स्थान में तो केवल दो भंगों से अर्थकी सिद्धि होती है ऐसा सम्मतिग्रंथ में दर्शाया है और उस ग्रन्थकी गाथा यह है इस प्रकार सप्तविकल्पसहित वचन ( नय) का मार्ग अथपर्याय में होता है और व्यञ्जनार्याय में तो सविकल्प विधिरूप art fafe farरूप दो ही भंग होते हैं। इसका विशेष विवरण यों है कि इस प्रकार पूर्वोक्त रीति से सप्त विकल्प अर्थात् सप्त (सात) प्रकारके भेदसहित जो वचन है सो ही सप्तभङ्गीरूप वचनका मार्ग है, वह अर्थपर्याय में अर्थात् अस्तित्व नास्तित्व आदिके विषयमें ही होता है और व्यञ्जनपर्याय जो घट कुम्भ आदि शब्दोंकी वाच्यता है वहांपर 'सविकल्प विधिरूप तथा निर्विकल्प विधिरूप दो ही भंग होते हैं, परन्तु अवक्तव्यत्व आदि भंग यहां नहीं होता, क्योंकि अवक्तय शब्दविषयको कहनेवालोंके विरोधको उत्पत्ति होती है अथवा सविकल्प शब्द समभिरूढ' नयके मतमें अवक्तयत्व आदि भंग होता है और निर्विकल्प शब्द एवं भूत नय में, तो इस प्रकार दो ही भंग जानते चाहिये और पहले चार जो अर्थनय हैं वे तो व्यञ्जनपर्यायको ही नहीं जानते हैं, इसलिये उन नयोंकी यहां प्रवृत्ति नहीं है यहांपर विशेष वर्णन अनेकान्त व्यवस्थासे जानना चाहिये । इस कारण पूर्वोक्त प्रकार से एक विषय में प्रतिवस्तु में जहां अनेक नयोंकी विप्रतिपत्ति हो पर स्यात्कार ( स्यात् ) पदसे लांछित उतने नयार्थका प्रकारवाला सात प्रकारका आलम्बनरूप जो बोध उस बोधको उत्पन्न करनेवाला अर्थात सात प्रकारके नयार्थीके प्रकार से विशेषता वा अनुयोगिता सम्बन्धसे अपनेमें रखनेत्राला जो ज्ञान उस ज्ञानका १ भेदसहित अर्थात् पय्र्यारूप भेदयुक्त २ भेवशून्य द्रव्य नयसे सब भेवशून्य है । ३ अनेक प्रकारके अर्थशेष करनेकी और झुकनसे ममभिरूढ नय कहलाता है। जैसे परमेश्वर्ययुक्त होनेसे इन्द्र समर्थ होनेसे शक और शत्रुके नगरका विदीर्ण करनेसे पुरन्दर कहलाते हैं, ऐसे ही उन उन arrant प्राप्त होनेमे द्रव्य विविधरूप संयुक्त होनेमे पर्याय इत्यादि । ४जिम रूप से है उससे बोध करावें वह एवंभून नय है। जैसे ऐश्वर्ययुक्त हो वही इन्द्र, समर्थ होनेसे शक्र ऐसे ही पर्यायों में जावे वह द्रव्य अनेक आकारयुक्त होनेसे पर्याय समझना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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