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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [५७ उत्पादक एक ही भंग इष्ट करना चाहिये और व्यञ्जन पर्यायस्थलमें पूर्वोक्त दो ही भंग समझने चाहिये और यदि सर्वत्र ( अर्थ तथा व्यञ्जनपर्याय ) स्थलमें सप्तभंगी नियमपर ही विश्वास है तो उस स्थलमें 'चालनी न्यायसे उतने ही नयार्थों के निषेधका बोधक भी दूसरा भंग और उसीको मूलाधारमें आश्रय करके उसी कोटि के अन्य पाँच भंगोंकी भी कल्पना करनी चाहिये क्योंकि इसी प्रकारसे निराकांक्ष संपूर्ण भंगोंकी प्रतिपत्ति ( बोध ) निर्वाह होता है इसलिये हम इस ही सिद्धान्तको युक्तियुक्त देखते हैं और यह विचार सूक्ष्म बुद्धिके धारक स्याद्वादमतज्ञाता पुरुषको अपने चित्तमें धारण करलेना चाहिये अब इस चतुर्दशवे (१४) सूत्रका फलितार्थ कहते हैं कि--इस वर्ण्यमान सप्तभंगीको तत्त्वदृष्टिसे विचारपूर्वक विवेचन करके अतिप्रौढतायुक्त जो भव्य अभ्यास करेगा वह जिन भगवानके चरणकमलोंकी सेवाको प्राप्त करके अचिर काल अर्थात् थोड़ेसे भवोंको ग्रहण करके मोक्षको प्राप्त होगा ॥ १४ ॥ इति श्रीवैयाकरणाचार्योपाधिधारकपं० ठाकुरप्रसाद द्विवेदिविरचितमाषाटीकासमलङ्कृतायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ।। - अथ पञ्चमाध्याये नयप्रमाणयोविवेचनं करोति अब इस पंचम अध्यायमें नय तथा प्रमाणका विचार करते हैं। एकोऽर्थस्तु त्रिरूपः स्यात्सत्प्रमाणावलोकितः । __ मुख्यवृत्त्योपचारेण जानीते नयवादवित् ॥१॥ भावार्थः-एक ही पदार्थ सत्प्रमाणसे दृष्ट होनेपर तीन प्रकारका होजाता है और नयवादका जाननेवाला इस त्रिरूपताको मुख्य तथा उपचार वृत्तिसे जानता है ॥१॥ व्याख्या । एकोऽर्थः घटपटादिर्जीवाजीवादिर्वा त्रिरूपः, रूपत्रयोपेतो ज्ञेयो यथा द्रव्यगुणपर्यायरूपः तथा हि घटादयो हि मृत्तिकादिरूपेण द्रव्याणि, घटगतरूपरसाद्यात्मकत्वेनानेके गणाः, घटादिरूपेण सजातीयद्रव्यत्वेन पर्यायाः । एवं जीवादीनामपि ज्ञेयम् । एकोऽर्थस्विरूपः स च कीदृशः सत्प्रमाणावलोकितः सत्प्रमाणं स्याद्वादस्तेनावलोकितो दृष्टः । यतः प्रमाणेन ससमलयात्मकत्वेन त्रिरूपत्वं मुख्यद्वारा ज्ञेयम । नयवादी ह्यकांशवादी स च मूख्यवृत्त्या तयोपचारेणकस्मिन्नर्थ त्रिरूपत्वं जानाति । यद्यपि नयवादिता एकांशवचनेन शक्तिरूप एकोऽर्थः कथ्यते । तथापि लक्षणारूपोपचारेणानेकेऽप्यर्था ज्ञायन्ते । एकदा वृत्तिद्वयं न भवेत् परं निश्चयो नास्ति । गङ्गायां मत्स्य घोषावित्यादिस्थलेष्विव वृतिद्वयस्यापि मान्यत्वात् । तद्वदि १ चालनीमें जलआदि डालोगे तो वह किसी न किसी ओर से निकल जायगा रुकेगा नहीं ऐसे ही द्रव्याथिक नयसे अभेद सिद्ध करोगे तो पर्यायाथिक निमित्तक भेदका निषेध होगा, भेद मानोगे तो अभेदका निषेध होगा दोनोंको एक कालमें लोगे तो वाक्यताका निषेध होगा इसी प्रकार किसीका निषेध और किसीका विधान होता रहेगा और सप्त भङ्ग बन जायेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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