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________________ ५८] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हापि मुख्यत्वेनामुख्यत्वेन चानन्तधर्मात्मकवस्तुज्ञापनायकस्य नयशब्दस्य वृत्तिद्वयमङ्गीकुवंतां विरोधो नास्ति । अथवा नयात्मकशास्त्रस्य क्रमेण वाक्यद्वयेनाप्यों ज्ञायते । अथवा एकशब्दबोधशब्देनैकबोधार्थः एवमनेके मंगा ज्ञेयाः ॥१॥ ___ व्याख्यार्थः-एक पदार्थ घट पटआदि अथवा जीव अजीवआदि तीन प्रकारका अर्थात् तीन रूपसंयुक्त होता है; प्रत्येक वस्तुको त्रिरूपसहित जानना चाहिये, और त्रिरूपता द्रव्य, गुण और पर्यायसे है जैसे घटआदि वस्तु मृत्तिकारूपसे द्रव्य हैं १ घटादिके रूप रसादिसे विवक्षा करो अर्थात् यह श्याम है, यह रक्त है, यह पीत है इस रीतिसे वे गुणरूप हैं २, और घटआदिरूप सजातीय द्रव्यत्वरूपसे विवक्षा करनेपर वे पर्याय हैं ३ । इस प्रकार घटादिके तीन रूप होगये और ऐसे ही जीवादिकोंको भी जानना चाहिये अर्थात् जीव आत्मरूपसे द्रव्य है १, ज्ञान दर्शनादिकी विवक्षासे गुण है २ और देव मनुष्यादि पर्यायको विवक्षासे पर्यायरूप है ३, अब वह एक पदार्थका त्रिरूप कैसा है कि-सत्प्रमाणसे अवलोकित ( दृष्ट) है अर्थात् समीचीन ( उत्तम ) स्याद्वादरूप प्रमाणसे विचारित होनेसे पदार्थकी त्रिरूपता स्पष्टतासे भासती है, क्योंकि सप्तभंगीरूप जो 'प्रमाण है, उससे वस्तुकी त्रिरूपता मुख्यवृत्तिसे जानी जाती है, और नयवादी अर्थात् एकअंशवादी' जो है वह मुख्यवृत्ति तथा उपचारसे भी एक पदार्थमें त्रिरूपताको जानता है । यद्यपि नयवादी एक अंशको कहनेवाले वचनसे शक्तिरूप' एक ही अर्थको कहता है, तथापि नपचारसे अर्थात् लक्षणाशक्तिसे अनेक अर्थोंको भी वह जानलेता है । यद्यपि एक कालमें ही दो वृत्ति अर्थात् अभिधा और लक्षणाशक्ति नहीं होसकती, परन्तु यह सिद्धान्त निश्चित नहीं है क्योंकि “गङ्गायां मत्स्यघोषौ” गंगामें मत्स्य तथा अहीरोंका ग्राम है, इत्यादि स्थलके तुल्य अन्यत्र भी एक कालमें ही दो शक्ति (अभिधा तथा लक्षणा) मान्य हैं । उसी प्रकारसे यहां भी मुख्यता तथा गौणतासे अनन्त धर्मस्वरूप वस्तुको जनानेके १ संपूर्णरूपसे पदार्थके स्वरूपको जो सिद्ध करे वह सम्यग्ज्ञानरूप सप्तमंगी नय यहां प्रमाण पदसे विवक्षित है क्योंकि "सकलादेशः प्रमाणाधीनः" संपूर्ण आदेश प्रमाणके आधीन हैं। २ वस्तुके स्वरूपके किसी अंशके प्रतिपादनको नय कहते हैं क्योंकि "विकलादेशो नयाधीनः" खंड, आदेश नयके, आधीन होता है। ३ जो अर्थको मुख्यवृत्तिसे प्रकाश करें वह अमिधा, लक्षणा तथा व्यंजना ये तीन प्रकारको शब्दमें शक्ति है और वाच्य, लक्ष्य, तथा व्यङ्गय, ये अर्थ भी तीन ही प्रकारके हैं, इसके अनुरोधसे शब्द मी वाचक लक्षक और व्यंजक इन भेदोंसे तीन प्रकारके हैं। ४ तात्पर्यकी अनुपपत्तिसे लक्षणाशक्तिसे वाक्यार्थ होता है " गङ्गायां घोषः" गजा नाम अभिधा शक्तिसे प्रवाहका है उसमें ग्राम नहीं रहसकता है, इसलिये गंगापदकी गगातटमें लक्षणा की, तब गंगा शब्द लक्षणाशक्तिसे गंगातटका बोधक हुआ तब अन्वय बनगया क्योंकि गंगातटमें अहीरोंका ग्राम रह सकता है। ऐसे ही लक्षणासे एक नय अन्यार्थका भी बोध करावेगा तो पदार्थकी विरूपताका बोधक हो जायगा। ५ यहां मत्स्यकेलिये तो गंगामें वाचकताशक्ति और घोषकेलिये लक्षणा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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