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द्रव्यानुयोगतर्कणा लिये एक ही नयशब्दकी दो वृत्ति स्वीकार करनेवालोंको कोई विरोध नहीं है । अथवा नयप्रतिपादक शास्त्रके क्रमसे दो वाक्योंसे भी अर्थ जान सकते हैं। अथवा एकार्थबोधक एक शब्दसे एक अर्थका बोध होता है और अन्य अर्थका अन्य शब्दसे, इस रोतिसे अनेक भंग भी समझलेने चाहियें ॥ १ ॥
अथोक्तमेवार्थं शब्दत्वेन ज्ञापयन्नाह । अब पूर्वोक्त विषयको ही सूत्रद्वारा प्रकाशित करते हैं।
द्रव्याथिकनयो मुख्यवृत्त्याभेदं वदंत्रिषु ।
अन्योन्यमुपचारेण तेषु भेदं दिशत्यलम् ॥ २ ॥ भावार्थः-द्रव्यार्थिकनय मुख्यवृत्ति अर्थात् वाचकता शक्तिसे द्रव्य, गुण, पर्याय तीनोंमें मृत्तिकारूपसे अभेद प्रकाश करता हुआ लक्षणाशक्तिसे उन तीनोंमें परस्पर भेद भी पूर्णरूपसे दर्शाता है !!२!
व्या०--द्रव्याथिकनयो मुख्यवृत्त्या मुख्या प्रधाना शब्दार्थकथनपरा वृत्तिापारो यस्य स तस्य मावस्तत्ता तया शब्दार्थादेशकत्वेन त्रिषु द्रव्य गुणपर्यायेष्वभेदं भेदामावं वदन् कययन मन् यतो गुणपर्यायाभ्यां भिन्नस्य मृद्रव्यस्य विषये घटादिपदस्य सक्तिरस्तीत्येतेषामन्योन्यमभेदं प्रकटयन्पुनः स एव द्रव्याथिकनयस्तेषु द्रव्यगुणपर्यायेषु चान्योन्यं परस्परमुपचारेण लक्षणया भेदं भेदत्वमलमत्यर्थं दिशति । यतो द्रव्यं भिन्न कम्बुग्रीवादिपर्यायेषु च तस्य घटादिपदस्य लक्षणावगम्यते । किं च मुख्यार्थबाधे तथैव मुख्यार्थसंबन्धे च सति तथाविधव्यवहारप्रयोजनेऽनुमृत्य तत्र लक्षणा प्रवर्ततेऽदुर्घटत्वात् । उक्त च-मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽर्थप्रयोजनात् । अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपितक्रिया । १। इति ॥२॥
व्याख्यार्थः-द्रव्यार्थिक नय मुख्यवृत्तिसे अर्थात् शब्दार्थके कथनमें तत्पर व्यापार वाली अभिधाशक्तिसे शब्दके अर्थोका प्रकाश करनेसे द्रव्य, गुण तथा पर्याय इन तीनों में अभेद ( भेदभाव )को कहता हुआ अर्थात् गुण और पर्यायसे भिन्न मृत्तिका रूप द्रव्य के कथनमें घटादि पदकी शक्ति है इस रीतिसे इन तीनोंमें परस्पर अभेद प्रकाश करता हुआ पुनः वही द्रव्यार्थिक नय उन ही द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंमें उपचार ( लक्षणाशक्ति )से भेदको भी पूर्ण रीतिसे प्रकट करता है, क्योंकि द्रव्य भिन्न है और कम्बुग्रीवत्वआदि पर्यायोंमें उस घटआदि पदकी लक्षणाशक्ति निश्चित होती है । और मुख्य अर्थके बधमें तथा मुख्य अर्थके संबन्ध रहते उसी प्रकारके व्यवहार तथा प्रयोजनका अनुसरण करके लक्षणाशक्ति प्रवृत्त होती है अन्यथा लक्षणाशक्तिको प्रवृत्ति दुर्घट है । और ऐसा कहा भी है-मुख्यार्थके बाध होनेपर उस मुख्य अर्थसे संबन्ध रखनेवाले तथामें ही रूढिसे अर्थ 'प्रयोजनसे
१ प्रयोजनवश लक्षणाके अनेक भेद हैं परन्तु मुख्यतः एक प्रयोजनवती और दूपरी निढा लक्षणा है। प्रथम में गंगाशब्दका गंगातट रूप अर्थ करनेसे यह प्रयोजन है कि--अहीरोंका ग्राम अतिपवित्र तथा औत्यादि धर्मयुक्त है। दूसरी निरूढ़ा लक्षणा कुशल आदि शब्दोंमें ममझनी चाहिये अर्थात् कुशलका अर्थ कुशलानेवाला है परन्तु रूढिसे वह चतुरके अर्थ में वर्तता है यही निरूढा लक्षणा है ।
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