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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [७७ कीङ्मकरन्दमहत्क्रमाम्भोजभवमहतां श्रीतीर्थकराणां क्रमाश्चरणास्त एवाम्भोजानि कमलानि तेम्यो भव उत्पत्तिर्यस्य तदर्हत्क्रमाम्भोजभवं जिनेश्वरचरणपङ्कजसंभवम । पुनः कोहक सुगन्धं शोभनो गन्धः आमोदो यस्य तत्सुगन्धमिति पद्यार्थः । यथालयोऽम्भोजभवं सुगन्धमिष्टं मकरन्दं निपीय सौहित्यमवाप्नुवन्ति । तथा मच्या एतद्ज्ञानाख्यं परमभावमिष्टं निपीय स्वभावमवाप्नुवन्ति । अभ्यद्विशेषणैस्तुल्यत्वं ज्ञेयम । भव्यानामलिसादृश्यं ज्ञानस्य च मकरन्दसादृश्यं च युक्तोपमात्वं, जिनक्रमे कमलोपमानञ्च साधर्म्यतया चेत्यपि बोध्यम् । आसन्नसिद्धिकाः, परमरुचिपरा इहामुत्रफलविरागा, इन्द्रियमात्रविषयावशा, नित्यसंवेगशान्तहृदया, विपाकलब्धनिमर्गबोधोदयेन परमभावेन ज्ञानेनाशेषकलुषकर्मसन्ताननि शनप्रकटित शूद्धशूक्लध्याननैर्मल्यविधूतशेषकर्मप्रकृतिशुभतयोत्कर्माणो, निजभावमनन्तचतुष्टयात्मकसौहित्यसंपूरितमनसं शिवावासमासादयन्तीति भावः ॥ २०॥ इति श्रीकृतिमोजविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां पञ्चमोऽध्यायः व्याख्यार्थः-गया है भय जिनका वह वीतभय अर्थात् रात्रि दिन आकस्मिक भयसे रहित भव्यालि अर्थात् मोक्षके अधिकारी भव्यजनरूपी भ्रमर, इष्ट (प्यारा) अर्थात् भवकी विपाकतासे उत्कृष्ट रुचिका देनेवाला, और श्रीजिनेन्द्रके चरणरूपी कमलोंसे जिसकी उत्पत्ति है; ऐसा तथा श्रेष्ठ गन्धके धारक इस उत्कृष्ट ज्ञाननामक मकरन्द ( पुष्परस ) को पीकर अपने आत्माका जो परमभावरूप सौहित्य ( तृप्ति ) है; उसको प्राप्त होते हैं; इस प्रकार पद्यका अर्थ है; तात्पर्य इसका यह है; कि-भ्रमर जैसे कमलसे उत्पन्न इष्ट मकरन्दको पानकरके परमतृप्तिको पाते हैं; ऐसे ही भव्य जन इस ज्ञाननामक इष्ट परमभावको पीकर स्वभावको प्राप्त होते हैं । अन्य सब विशेषणोंसे ज्ञान तथा मकरन्दकी तुल्यता समझ लेनी चाहिये । और भव्योंके भ्रमरका सादृश्य और ज्ञानको मकरन्दका सादृश्य जो दिया है; यह उपमाके योग्य ही है । तथा जिन भगवान के चरणोंके कमलकी जो उपमा दी है; सो भी साधर्म्यसे ही है; यह भी जानना चाहिये । समीप है; मुक्ति जिनकी ऐसे तथा ज्ञानकी प्राप्तिमें परम प्रीतिके धारक, इस लोक और पर लोकसम्बन्धी स्वर्गादिकोंके सुखरूप फलोंमें रागरहित, पांचों इन्द्रियोंके विषयोंकी आधीनतासे मुक्त, निरन्तर संवेगसे शान्तहृदयके धारक, विपाकसे प्राप्त स्वाभाविक ज्ञानके उदयरूप परम भाव जो ज्ञान है; उसकरके संपूर्ण मलिन कर्मों के घातिया कोंके नाश करनेसे प्रकट हुआ जो शुद्ध शुल्कध्यान उसकी निर्मलतासे नष्ट करी है; वाकिके कर्मोंकी अर्थात् चार अघाती या कर्मोंकी प्रकृतिरूप शुभश्रेणी जिन्होंने और अतएव कर्मरहित ऐसे भव्यजन अपने भावको अर्थात् अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनन्त वीर्यरूप अनन्त चतुष्टयलक्षणतृप्तिसे भरे हुए, अंतरहित ऐसे मोक्षस्थानको प्राप्त होते हैं; यह भाव है ॥ २० ॥ इति श्रीपण्डितठाकुरप्रसादशास्त्रिविरचितमाषाटीकासमलङ्कतायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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