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________________ ७६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् परमभावसंग्राही दशमो भेद आप्यते । ज्ञानस्वरूपकस्त्वात्मा ज्ञानं सर्वत्र सुन्दरम् ॥१६॥ भावार्थ:-परमभावका संग्राही यह द्रव्याथिकनयका दशम भेद प्राप्त है; जैसे किआत्मा ज्ञानस्वरूप है; क्योंकि-आत्माके सब गुणोंमें सारभूत गुण ज्ञान ही है ।।१९।। व्याख्या-परमभावसंग्राही परमभावग्राहको दशमो भेद: कथितः ।१०। यथा ज्ञानस्वरूपक आत्मा ज्ञानस्वरूपी कथितः । दर्शनचारित्रवीर्यलेश्यादयो ह्यात्मनो गुणा अनन्ताः सन्ति, परन्तु तेषु एकं ज्ञानं सारतरं वर्तते । अन्यद्रव्येभ्य आत्मनो भेदो ज्ञानगणेन दर्शयिष्यते तस्मात्कारणाच्छीघ्रोपस्थितिकत्वेनात्मनः परमस्वभावो ज्ञानमेवास्ते । इत्थमन्येषामपि परममावा असाधारणगुणा ग्रहीतब्या: । परममावग्राहको द्रव्याथिकदशम इति । अत्रानेकस्वभावानां मध्ये ज्ञानाख्यः परमस्वभावो गृहीत इति द्रव्याथिकस्य दश भेदाः ॥ १९ ।। व्याख्यार्थः-परमभावका संग्रहण करानेवाला होनेसे परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक यह दशम भेद कहागया है; जैसे आत्मा ज्ञानस्वरूपी कहा है, यद्यपि दर्शन, चारित्र, वीर्य तथा लेश्याआदि आत्माके अनन्त गुण हैं; परन्तु उन सबमें एक ज्ञान गुण सबसे अधिक सारभूत है, क्योंकि हम अन्यद्रव्योंसे आत्माका भेद ज्ञानगुणसे ही दर्शावेगे, इस हेतुसे तथा सब गुणोंमेंसे शीघ्र उपस्थिति एक ज्ञान गुणकी ही होती है; इसलिये आत्माका परम ( सर्वोत्तम ) स्वभाव ज्ञान ही है। इसी रीतिसे अन्य द्रव्योंके भी असाधारण गुणरूप परम भावोंका ग्रहण करना चाहिये । इसलिये यह परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक दशम १० भेद है। इस नयमें आत्माके अनेक स्वभावोंके बीचमेंसे ज्ञाननामक परम स्वभाव ग्रहण किया है । इस प्रकार नौ नयोंमें प्रथम जो द्रव्यार्थिक है; उसके दश भेदोंका स्वरूप है ॥ १९ ॥ अथाध्यायसमाप्ती ज्ञानस्य मोक्षहेतोः प्रशंसामाह । अब पंचम अध्यायकी समाप्तिमें मोक्षका साक्षात् हेतु जो ज्ञान है; उसकी प्रशंसा कहते हैं। ज्ञानाख्यमेतन्मकरन्दमिष्टं भव्यालयो वीतभया निपीय । अर्हत्क्रमाम्भोजभवं सुगन्धं स्वभावसौहित्यमवाप्नुवन्ति ॥२०॥ भावार्थः-भव्य पुरुषरूपी भ्रमर सबको इष्ट श्रीजिनेन्द्रके चरणकमलोंसे उत्पन्न, अत एव अतिसुगन्धताके धारक इस ज्ञानरूपी मकरन्द ( पुष्परस ) को निर्भय होके पीकर निजभावरूपी तृप्तिको प्राप्त होते हैं ।। २० ॥ व्याख्या-भव्यालयः भवाय अर्हा मव्यास्त एवालयो भ्रमरा एतदुत्कृष्टज्ञानाख्यं मकरन्दं मरन्दं निपीय पीत्वा स्वभावसौहित्यं स्वस्य आत्मनो मावः परममावस्तद्र पं सौहित्यं तृप्ति स्तदवाप्नुवन्ति । कीदृशा भव्यालयः बीतभया वीतं गत भयं येषान्ते वीतमा दिवानिशमाकस्मिकसाध्वसरहिताः कीदृङ्मकरन्दमिष्टं वल्लभं भवविपाकत्वेन परमरुचिप्रम् । पुनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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