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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ७५ अथ नवमभेदमाह । अब नवम भेदको कहते हैं । परद्रव्यादिकग्राही नवमो भेद उच्यते । परद्रव्यादिकेभ्योऽसन्नर्थः संभाव्यते यथा ॥ १८ ॥ भावार्थः-परद्रव्यआदिका ग्रहण करनेवाला नवम ९ भेद कहा जाता है, जैसे परद्रव्यआदिकी अपेक्षासे पदार्थ (घट) असत्रूपसे संभावित होता है ॥ १८ ॥ व्याख्या - तेषु द्रव्यार्थादिषु परद्रव्यादिग्राहको द्रव्याथिको नवमः (8) यथार्यों घटादिः परद्रव्यादिचतुष्टयेभ्योऽसन् वर्त्तते । घटापेक्षया परद्रव्यं पटोऽतस्तन्त्वादिभ्यो घटोऽसन्नस्ति । १। परक्षेत्राद्यथा घटो माथुरो वर्त्तते न काशीज: किन्तु घटक्षेत्र मथुरा तदपेक्षया काशीमिन्ना अत एव परक्षेत्रात्काशीलक्षणादसन् घटः । २। परकालाद्यथा घटो वसन्ते निष्पन्नोऽतो वासन्तिको घटः, वसन्तापेक्षया प्रैष्मो भिन्नस्ततो ग्रीष्मकालजाद्वासन्तिको घटोऽसन् । ३ । परभावाद्विवक्षितश्यामादिभावापेक्षया रक्तो घटोऽसन्वर्त्तते । ४ । एवं परद्रव्यादिग्राहको द्रव्याथिको नवमः । ६ ॥ १८ ॥ व्याख्यार्थः- उन द्रव्यार्थआदिमें परद्रव्यादिका ग्राहक होनेसे परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनामक नवम भेद है । जैसे घटआदि पदार्थ परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप चतुष्टयकी अपेक्षासे असत् ( अविद्यमान )रूप ही वर्त्तता है। घटको अपेक्षासे परद्रव्य पट है, इस हेतुसे तन्तु (सूत)आदिसे घट असत् है; अर्थात् पटादिरूपसे 'घट नहीं है । १। इसो रीतिसे परक्षेत्रकी अपेक्षासे भी जैसे घट मथुरामें बना हुआ है; न कि-काशीमें उत्पन्न हुआ और घटका क्षेत्र(स्थान)जो मथुरा है; उसकी अपेक्षा काशी भिन्न है; इस ही कारण काशीरूप जो परक्षेत्र है; उसकी अपेक्षासे घट नहीं है । २ । परकालकी अपेक्षासे जैसे घट वसन्तकालमें उत्पन्न हुआ इसकारण घट वासन्तिक हुआ और इस वसन्त ऋतुकी अपेक्षासे ग्रीष्म ऋतु भिन्न है; अतः ग्रीष्म(गर्मी)के-कालमें उत्पन्न हुए घटसे वसन्त समयमें उत्पन्न हुआ 'घट असत् है । ३ । ऐसे ही परभावसे भी विवक्षित श्यामआदि भावकी अपेक्षासे रक्त घट असत् है । ४। ऐसे परद्रव्यआदिका ग्राहक नवमां द्रव्यार्थिकनय है ॥ १८ ॥ अथ दशमभेदोत्कीर्तनमाह । अब दशम भेद का कथन करते हैं । १ सप्त भंगोंमें स्यादस्ति और स्यान्नास्तिका निरूपण प्रथम करचुके हैं, उसका यही अभिप्राय है; कि स्वकीय द्रव्यादिकी अपेक्षासे तो घट है; परन्तु परकीय द्रव्यादिकी अपेक्षासे घट नहीं है अर्थात् पदार्थके स्वरूपसे जैसे अस्तित्व पदार्थका स्वरूप मासता है। ऐसे ही परकीयरूप द्रव्यादिकी अपेक्षासे नास्तित्व भी पदार्यका स्वरूप ही है, यही स्याद्वादका रहस्य है। २ जैसे परद्रव्यरूपसे घटकी असत्ताका भान होता है; ऐसे परकाल जो ग्रीष्म है; उसकी अपेक्षासे घट नहीं है, अर्थात् घटकी अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे तो सत्ता है; औरखव्यादि चतुष्टयसे असता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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