________________
७४ ]
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् जिसके होते जिसकी विद्यमानता हो अर्थात् गुण पर्यायोंके रहनेपर घटआदि द्रव्यका जो अवश्य रहना है; वह अन्वय कहलाता है; अथवा जिसके रहते जिसकी उत्पत्ति हो वह अन्वय है; जैसे दंडकी सत्तामें घटकी उत्पत्ति होती है; "अर्थात् दण्ड कारण होय तब ही तो घट ( कार्य) उत्पन्न हो अन्यथा नहीं यह भी अन्वय कहा जाता है । द्रव्यस्वरूपका संपूर्ण गुण पर्यायोंमें अन्वय है; इसी कारण जब द्रव्यस्वरूप ज्ञात होता है; तब द्रव्यार्थके आदेशसे उस द्रव्यके साथ अनुगत जितने गुण और पर्याय हैं; वे भी जाने जाते हैं । जिस प्रकारसे कि-सामान्यकी 'प्रत्यासत्तिसे किसी एक घटआदि व्यक्तिका ज्ञान होनेसे उस जातिसहित संपूर्ण व्यक्तिये जानी जाती हैं । ऐसे ही यहां भी एक स्वभावके अन्वयसे यह अन्वय द्रव्यार्थिक सप्तम नय भी जानलेना चाहिये ।। १६ ।।
अथाष्टमभेदोत्कीर्तनमाह। अब अष्टम भेदके कीर्तनको कहते हैं ।
स्वद्रव्यादिकसंग्राही ह्यष्टमो भेद आहितः ।
स्वद्रव्यादिचतुष्केभ्यः सन्नर्थो दृश्यते यथा ॥१७॥ भावार्थ:-स्वकीय द्रव्य क्षेत्रादिका ग्राहक होनेसे स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक यह अष्टम भेद कहागया है; जैसे स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षासे घटआदि पदार्थ सद्रूपसे ही दृष्ट होता है ॥ १७ ॥
व्याख्या-स्वद्रव्यादिग्राहको द्रव्याथिकोऽष्टमो भेदः कथितः । यथार्थो घटादिः स्वद्रव्यतः स्वक्षेत्रतः स्वकालतः स्वभावतः सन्नेव प्रवर्त्तते । स्वद्रव्याद्धटः काञ्चनो मृन्मयो वा ॥१॥ स्वक्षेत्राद्धट: पाटलिपुत्रो माथुरो वा । २। स्वकालाद्धटो वासन्तिको श्रेष्मो वा । ३। स्वभावाद्धट: श्यामो रक्तो वा । ४ । एवं चतुर्वपि घटद्रव्यस्य सत्ता प्रमाणसिद्ध वास्ति । स्वद्रव्यादि ग्राहको द्रव्याथिकोऽष्टमो भेद इति ज्ञेयम् ।।१७।।
व्याख्यार्थः-अपने द्रव्यआदिको ग्रहण करनेवाला अष्टम द्रव्यार्थिक भेद कहा गया है । जैसे घटआदि पदार्थ अपने द्रव्यसे १, अपने क्षेत्रसे २, अपने कालसे ३, तथा अपने स्वभावसे सत् (विद्यमान) रूप हो प्रवृत्त होता है । स्व (निज) द्रव्यसे घट सुवर्णका बना हुआ है; अथवा मृत्तिकास बनाहुआ है; १, अपने क्षेत्रसे घट पटनेका वा मथुराका है; २, अपने कालसे घट वसन्त ऋतुका अथवा ग्रीष्म ऋतुका है; ३, अपने भावसे घट श्याम वा रक्त है; ४, ऐसे स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारोंमें घटद्रव्यकी सत्ता प्रमाणसे सिद्ध है। इसलिये “स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय" यह अष्टम भेद जानना चाहिये ॥ १७॥ ।
१सबपर रहनेवाला सामान्य धर्म, तर प्रत्यातत्ति अर्थात एक प्रकारकी व्यक्ति अर्थात जैसे एक प्रकारको घटआदि व्यक्तियोंपर रहनेवाले तिर्यक् सामान्यसे सब व्यक्तियोंका बोध होता है; ऐसे ही द्रव्यरूपके अन्वयसे सब गुण पर्यायोंका ज्ञान होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org