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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ षष्ठाध्याये पर्यायाथिकनयं विवृणोति । तत्रादी पर्यायाथिक: षविधोऽतस्तमेव कीलयन्नाह । तत्रापि नमस्कारगर्भितं जिनवाक्यस्वरूपं प्ररूपयति ।
अब षष्ठ (छठे) अध्यायमें पर्यायार्थिकनयका विवरण करते हैं; उसमें आरंभमें पर्यायार्थिकके ६ भेद हैं; उनको ही दिखाते हैं, उसमें भी नमस्कार गर्भित जिनेश्वरकी वाणीके स्वरूपका निरूपण करते हैं।
एकाप्यनाद्याखिलतत्त्वरूपा, जिनेशगीविस्तरमाप तकः ।
तत्राप्यसत्यं त्यज सत्यमङ्गी, कुरु स्वयं स्वीयहिताभिलाषिन् । भावार्थः--यद्यपि अनादि तथा संपूर्ण तत्त्वोंको धारण करनेवाली जिनवाणी एक ही है; तथापि तर्कोसे विस्तारको प्राप्त होगई अर्थात् अनेकरूप धारण करलिये हैं; अतः हे निज आत्माके हितको चाहनेवाले भव्य ! उस दिगम्बर मतमें भी जो असत्य है; उसका तो त्याग कर और जो सत्य है; उसको स्वीकार कर ॥ १॥
___ व्याख्या-एकापि जिनेशगीरहद्वाणी अर्हन्मुखानिर्गच्छमाना अद्वितीया यथाभाषितं तथा श्रूयमाणा तथा अनाद्या आदिरहिता एकेन तीर्थकृता यदुपदिष्टं तदनेकेषां पूर्वपूर्वतरतीयकृतामपि तथैव निरूप्यमाण स्वावादिरहिता । पुनः कीदृशी अखिलतत्त्वरूपा समस्ततत्वमयी तविचारैबहुभेदतां प्राप बहुप्रकारैर्बहुधा विस्तृता। यतो दिग्वाससां मतमपि जिनमतं धृत्वैतादृशनयानामनेकाकारतां प्रवर्तयति । अतस्तन्मतेऽपि यद्विमृश्यमानं सत्यं जायते तदेवाङ्गीकुरु, यच्चासत्यं तत्सर्वमपि त्यज स्वयमात्मना हे स्वीयहिताभिलाषिन् ! निजहितकाक्ष्विन् ! शब्दान्तरत्वेन तन्मतमपि न द्वषविषयोकर्त्तव्यम् । सर्वमप्यर्थंकत्वविवक्षया समञ्जसमेवेति ॥१॥
व्याख्यार्थः-श्रीजिनेश अर्थात् अर्हत् भगवान के मुखारविन्दसे निःसृत वाणी एक (अद्वितीय) रूप ही है; अर्थात् जिस प्रकार श्रीजिनेश्वर भगवान्ने भाषण किया उसी प्रकारसे श्रयमाण (सुननेमें) चली आती है; तथा अनादि अर्थात् आदिरहित है; क्योंकि-एक तीर्थकरने जो उपदेश किया है; वह ही अनेक पूर्व पूर्व कालके जिनेश्वरोंने भी निरूपण किया है । पुनः वह जिनेशवाणी कैसी है; कि-संपूर्ण तत्त्वमयी है; अर्थात् उसमें सब तत्त्वों का निरूपण है; तथापि अनेक प्रकारके तर्कों ( विचारों ) से अनेक भेदोंको प्राप्त हुई है; अर्थात् अनेक प्रकारके तर्कोसे अनेक रूपोंसे विस्तारको प्राप्त हुई है; क्योंकि-दिगम्बरियोंका जो मत है; वह भी जिनमतको धारण करके इन द्रव्यार्थिकादि नयोंकी अनेक आकारताको प्रवृत्त करता है; इस कारण हे निजहिताभिलाषी भव्यजनो ! उनके मतमें भी जो विषय विचाराहुआ सत्य हो अर्थात् विचार करनेपर जो तुमको सत्य प्रतीत हो उसीको स्वयं अर्थात् अपने आत्मासे स्वीकार करो और जो उनके मतमें असत्य है; उस सबको त्यागो । शब्दभेद होनेसे दिगम्बरोंके मतसे भी द्वेष न करना चाहिये क्योंकि-अर्थके एकत्वकी विवक्षासे तो उनका भी सब कथन युक्त ही है ॥ १॥
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