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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ २९. व्याख्यार्थः – जब द्रव्यादिका अर्थात् द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंका एकान्तपक्षसे परस्पर भेद कहते हो, तो परद्रव्यकी तरह स्वद्रव्यके विषय में भी गुण और गुणीके भावका उच्छेद ( सर्वथा अभाव ) हो जायगा । जैसे जीवद्रव्यके ज्ञानादिक गुण हैं, और उनका गुणी जीवद्रव्य है, ऐसे ही पुद्गल द्रव्यके गुण रूप आदि हैं और पुद्गल द्रव्य उनका गुणी है । इसप्रकार जो व्यवस्था शास्त्रमें प्रसिद्ध है वह गुण और गुणीके सर्वथा भेद अंगीकार करनेसे लुप्त होती है । क्योंकि जैसे जीवद्रव्यका पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भेद है । वैसे ही निजगुणोंसे भी भेद है । उस ही प्रकार इसके यह गुणी हैं तथा इस द्रव्यके यह गुण हैं यह जो व्यवहार हैं वह भी लुप्त होता है । इसलिये द्रव्य, गुण तथा प्रर्यायोंके अभेद ही संभवता है । ऐसा भेदनयका विचार गुरुके उपदेशसे भव्य जीव धारण करें ||१|| अथ पुनरप्यभेदमाश्रित्य युक्ति कथयन्नाह । अब पुनः अभेदका आश्रय करके युक्तिको दर्शाते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । गुणपर्याययोर्द्रव्ये भेदसम्बन्ध ईरितः । अनवस्था प्रबन्धः स्याद्भ ेदकल्पनया भृशम् ॥२॥ भावार्थ:- गुण और पर्यायका द्रव्यके विषयमें अभेद संबंध ही सिद्धान्तमें कहा गया है, क्योंकि भेदकल्पनासे अत्यंत अनवस्थाका प्रबन्ध हो जाता है ||२|| व्याख्या | गुणपर्याययोरन्योन्यं द्रव्ये द्रव्यविषये अभेदसम्बन्ध एवास्ति । यदि च द्रव्यविषये गुणपर्याययोः समवायनाम्ना भिन्नः सम्बन्धः प्रकल्पते, तदाऽनवस्यादोषनिबन्धनं निष्पद्यते । गुणगुणिनोरिव पृथक्समवायो लक्ष्यते । पुनस्तस्य समवायसम्बन्धस्यापि अन्यः सम्बन्धो युज्यते । पुनस्तस्यापि अन्यतरः | एवं प्रकल्पयतोऽवस्थिति: कुत्रापि न भवति । एवं च भेदकल्पनया मृशमत्यर्थमनवस्थाप्रबन्धः अस्थितियुक्तिप्रसङ्गश्च जायते । तस्मात् कारणात् समवायस्य स्वरूपसम्बन्धमेवाभिन्नतया यदङ्गीचकर्थ । तहि गुणगुणिनोः स्वरूपसम्बन्धमङ्गीकुर्वतां को दोषः । किं च भवतां विघटते । यच्च नवीन सम्बन्धकल्पनगौरवं विधत्य । उक्त च "प्रक्रियागौरवं यत्र तं पक्षं न सहामहे । प्रक्रियालाघवं यत्र तं पक्षं रोचयामहे” ॥१॥ ऋजुमार्गेण सिद्धयतोऽर्थस्य वक्रेण साधनायोगात् । समवायस्य स्वरूप सम्बन्धमिन्नकरणे गुणगुणिनोव स्वरूपसम्बन्धाङ्गीकरणे च को विशेषो निरर्थं कनवीन सम्बन्ध विष्करणेन च गौरवापत्तिरिति दिक् ॥२॥ व्याख्यार्थः–स्याद्वादसिद्धान्त में द्रव्यके विषय में अर्थात् द्रव्यके साथ गुण और पर्यायका परस्पर अभेद संबंध ही है । और यदि द्रव्यके विषय में गुण और पर्यायका समवाय नाम एक भिन्न संबंध कल्पित करते हो, अर्थात् गुण और पर्याय यह दोनों ही द्रव्य में समवाय संबंध से रहते हैं ऐसा मानोगे तो वह अनवस्थारूप दोपका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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