________________
२०]
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कारण होता है। क्योंकि तुम्हारे मतमें गुण तथा गुणी जैसे भिन्न २ लक्षित होते हैं उनके तुल्य समवाय भी तो सबसे पृथक् भासता है । और जैसे गुण, गुणी द्रव्यमें समवाय संबंधसे रहते हैं ऐसे ही समवाय संबंध भी उनमें किस संबंधसे रहेगा इससे उस समवायका भी अन्य संबंध मानना योग्य है। और फिर उस समवाय संबंधका भी अन्य संबंध कल्पना करना चाहिये । इसप्रकार कल्पना करते हुए तुम्हारी स्थिति कहीं भी न होगी। इसप्रकार भेदकी कल्पनासे अत्यंत अनवस्थाका प्रबंध और अस्थिति युक्तिका प्रसंग होता है । इसकारण यदि समवायका अन्यसंबंध न मानकर अभेदसे स्वरूपसंबंध ही अङ्गीकार किया हो तो गुण तथा गुणीके स्वरूपसंबंध स्वीकार करनेवालोंको क्या दोष है ? और तुम्हारा इसमें क्या विगाड़ होता है जो नवीन समवाय संबंध स्वीकाररूप कल्पनाका गौरव करते हो ? अन्यत्र कहा भी है "जिस पक्षमें प्रक्रिया का गौरव है उस पक्षको हम नहीं सहते हैं, और जिस पक्षमें प्रक्रियाका लाघव है उस पक्षको प्रसन्नतासे स्वीकार करते हैं। क्योंकि जो अर्थ सरल मार्गसे सिद्ध होता है उस अर्थको वक्रमार्गसे साधना योग्य नहीं है । और समवायके जुदा स्वरूप संबंध करने में तथा गुणगुणीके स्वरूप संबंध स्वीकार करनेमें क्या विशेष ( फर्क ) है ? और व्यर्थ नवीन संबंधके प्रकट करनेमें गौरव होता है ( अर्थात् गुण और गुणीका भेद मानना
और उनका समवायसंबंध मानना पुनः अनवस्थादोषसे भयभीत होकर समवायका संबन्धांतर न मानकर उसका स्वरूपसंबंध ही स्वीकार करना इसकी अपेक्षा गुणगुणीके केवल स्वरूपसंबंधके माननेमें ही लाघव है, क्योंकि स्वरूपसंबंध तो तुमको भी मानना पड़ता ही है) इस प्रकार संक्षेपसे सर्वथा गुणगुणीके भेद' माननेवालेके मतमें दूषण दर्शाया है ॥२॥
पुनर्भेदपक्षिणो दूषयन्नाह ।। अब भेदवादीके पक्षको दोष देते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं ।
स्वर्णं कुण्डलतां प्राप्तं घटो रक्तत्वमोयिवान् ।
इति व्यवहृतिर्न स्याद्यद्यभेदो भवेन्न हि ॥३॥ सूत्रार्थः-यदि द्रव्य, गुण तथा पर्यायका अभेद न होता तो “सुवर्णद्रव्य कुण्डलदशाको प्राप्त हुआ और घट रक्तत्व ( गुणदशा ) को प्राप्त हुआ" यह व्यवहार लोकमें नहीं हो सकता ॥३॥
व्याख्या । स्वणं कुण्डलतां कुण्डलभावं प्राप्तं । कनके कुण्डलाकारतां गतेपि नामान्तरण
१ जाति व्यक्तिका, गुण गुणीका, अवयव अवयवीका, क्रिया क्रियावान्का तथा नित्यद्रव्य विशेषका, भेद नैयायिक मानते हैं और इनका समवायसंबंध भी नैयायिक मानते हैं, उनके मतमें यह दोष है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.