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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः--संज्ञा अर्थात् वस्तुओंका नाम उस नामकृत विभाग जैसे द्रव्य नाम १ गुण नाम २ तथा पर्याय नाम इत्यादिसे । संख्या अर्थात् गणना उस गणनाजनित विभागसे, जैसे जीव, पुद्गल, धर्म आदि छह द्रव्य हैं, गुण अनेक हैं, तथा पर्याय भी अनेक हैं, इस विभागसे और आसाधारण धर्म वचन लक्षण है अर्थात् लक्ष्य पदार्थका ऐसा धर्म वर्णन करै, कि वह धर्म अन्य पदार्थों में न मिले; वह ही असाधारणधर्मको कहनेवाला लक्षण है । उसका किया हुआ विभाग जैसे “उन उन पदार्थोंको जो प्राप्त हो वह द्रव्य है” यह द्रव्यका लक्षण है । " एक समूह वा एक जातिके पदार्थों में से जो एक किसीको पृथक् करै वह गुण है" यह गुणका लक्षण है, ऐसे ही "जो सर्वत्र व्याप्त हो, जो सर्वत्र गमन करै वह पर्याय है" यह पर्यायका लक्षण है । इसप्रकार संज्ञा, संख्या, तथा लक्षणके द्वारा द्रव्य, गुण तथा पर्य्यायका परस्पर भेद है । इस रीति से संज्ञा संख्या और लक्षणोंसे द्रव्य आदिके परस्पर भेदको जानकर श्रीभगवान् तीर्थनाथ द्वारा भाषित इस स्याद्वादरूपी सिद्धान्तमें जो श्रद्धा करै उस मनुष्यके निश्चल ( अकंपायमान् ) बोध (सम्यक्त्व) की प्राप्ति होती है, ऐसा जानना चाहिये ॥ १६ ॥ इति श्रीद्रव्यानुयोगतर्कणाव्याख्यायामाचार्योपाधिधारिपण्डितठाकुरप्रसाद २८ ] शर्मप्रणीतभाषाटीकासमलङ्कृतायां द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ 5 अथ तृतीयाध्याये ये तीर्थिका द्रव्यादीनां भेदमङ्गीकुर्वन्ति । अभेदपक्षमाश्रित्य तान् दूषयन्नाह । अब जो शाखकार द्रव्यादिका सर्वथा भेद ही अंगीकार करते हैं उनके मतको अभेद पक्षका आश्रय करके इस तृतीय अध्यायमें दूषित करते हैं । एकान्तेनोच्यते भेदो द्रव्यादीनां मिथो यदा । स्याद्गुणगुणिनोरेव भावोच्छेदोऽन्यद्रव्यवत् ॥ १ ॥ भावार्थ:- यदि एकान्ततः अर्थात् सर्वथा द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंका परस्पर भेद ही कहते हो, तो अन्य द्रव्यके तुल्य गुणगुणी भावका उच्छेद (अभाव) हो जावेगा । व्याख्या । यदा द्रव्यादीनां द्रव्यगुणपर्यायाणामेकान्तेन एकान्तपक्षेण मिथः परस्परं भेद उच्यते, तदा अन्यद्रव्यवत् परद्रव्येणैव स्वद्रव्यविषयेऽपि गुणगुणिनोरेव भावोच्छेदो गुणगुणिभावस्य व्युच्छित्तिर्भवेत् । यथा जीवद्रव्यस्य गुणा ज्ञानादयस्तेषां गुणी जीवद्रव्यम्, पुद्गलद्रव्यस्य गुणा रूपादयस्तेषां गुणी पुद्गलद्रव्यमिति । एवं व्यवस्था शास्त्रप्रसिद्धा भेदाङ्गीकारेण विलुप्यते । जीवद्रव्यस्य यथा पुद्गलद्रव्यस्य गुणेभ्यो भेदोऽस्ति तथा निजगुणेभ्यो ज्ञानादिभ्योऽपि भेदोऽस्ति । तद्वत् अयमस्य गुणी । एतस्य एते गुणा, इत्ययं व्यवहारोऽपि विलुप्यते । तस्मात् कारणात् द्रव्यपर्यायाणामभेद एवं सम्भवति । एतादृशो भेदनयविचारो गुरोरुपदेशात् भव्याङ्गिनो धारयन्ति ॥ १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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