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द्रव्यानुयोगतर्कणा
[२७ गन्ध आदि द्रव्यके पर्यायद्वारा प्राण आदि इन्द्रियोंसे भी द्रव्यका प्रत्यक्ष होता है । यदि ऐसा न मानो, तो “पुष्पं ब्रापयामि” मैं तुमको फूल सुंघाता हूं, इत्यादि ज्ञानमें भ्रम होगा। इसप्रकार अनेक इन्द्रियग्राह्य (जानने योग्य ) द्रव्यसे एक इन्द्रियग्राह्य गुणपर्यायका भेद जानना चाहिये । और गुण तथा पर्यायका परस्पर भेद तो सहभावी तथा क्रमभावी कल्पनासे समझ लेना चाहिये । सह अर्थात् द्रव्यके साथ साथ भावी होनेवाला जो हो सो सहभावी गुण है, जैसे पुद्गलमें रूपादि और जीवमें ज्ञान आदि उपयोग । और क्रम अर्थात् बारी बारी से भावी होनेवाला जो हो सो क्रमभावी-पर्याय है। जैसे अजीव मृत्तिका द्रव्यमें पिंड कुसूल आदि, सुवर्णमें कटक कुंडल आदि, और जीव द्रव्यमें नर नारक तथा सिद्धादि पर्याय समझना । और भी पर्यायके दो भेद हैं; एक तो सहभावी (साथ होनेवाला) पर्याय और दूसरा क्रमभावी अर्थात् क्रमसे होनेवाला पर्याय । इनमेंसे साथ होनेवाले पर्यायको ही गुण कहते हैं । यहाँपर पर्यायशब्दसे पर्याय सामान्यका ग्रहण है, अर्थात् निज आधारभूत व्यक्तिमात्रमें व्यापक होकर रहनेवाला पर्याय गुणशब्दसे कहा जाता है, इसलिये ऐसा कहनेसे कोई दोष नहीं है । उनमें सहभावी पर्याय गुण हैं, जैसे आत्माके विज्ञान व्यक्तिकी शक्ति आदि, और क्रमभावी पर्याय हैं, जैसे आत्माके सुख दुःख हर्ष तथा शोक आदि; इस रीतिसे गुणपर्यायके परस्पर भेदकल्पना करनी चाहिये ।। १५ ॥
सज्ञासङ्घयालक्षणेभ्यो विभाग,
द्रव्यादीनां यो विदित्वा मिथोऽत्र । राद्धान्ते श्रीतीर्थनाथप्रणीते,
श्रद्धां कुर्यान्निश्चलस्तस्य बोधः ॥१६॥ व्याख्यार्थः-संज्ञा (वस्तुके नाम) संख्या (पदार्थ गणना) तथा असाधारण धर्म वचन आदि लक्षणद्वारा जो द्रव्य आदिके विभागको परस्पर जानकर श्रीभगवान् तीर्थनाथरचित सिद्धान्तमें श्रद्धा करेगा, उस भव्य जीवके अचल बोध होगा ।। १६ ।।
___ इति श्रीभोजविनिर्मितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां द्वितीयोऽध्यायः ___ व्याख्या। संज्ञा नाम तत्कृतो विभागो, यथा-द्रव्यनाम १ गुणनाम २ पर्यायनाम ३ चेति । सतया गणना तत्कृतो विभागे यथा द्रव्याणि षट्, गुणा अनेके, पर्याया अनेके । लक्षणं वसाधारणधर्मबनने तकतो विभागो यथा द्रवति तांस्तान्पर्यायानागच्छतीति द्रव्यम् । गुमनमेकस्मादन्यस्य मिनकरणं कण परिगमनं सर्वतो व्याप्तिः पर्यायः । एवमेतेषां द्रव्यगुणपर्यायाणां परस्परं भेदोऽस्ति। एवं माजासहचालक्षणेभ्यो विभागं भेदं विदित्वा द्रव्यादीनां यो मिथः परस्परम् अत्र राद्धान्ते सिद्धान्ते भीतीनाथप्रणीते श्रीभगवद्धाषिते श्रद्धामास्थां कुर्यात् तस्य भव्यस्य निश्चलो नि:प्रकम्पो बोधः सम्यक्त्वं लमत इति ज्ञेयम् ॥ १६ ॥
इति श्रीद्रव्यानुयोगतर्कणायां भेदप्रदर्शनी द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
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