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________________ १५० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः--इस प्रकार प्रतिक्षणके परिणामसे संपूर्ण द्रव्यों में त्रिविध लक्षणका योग सिद्ध किया गया; इसी अभिप्रायसे संमति ग्रंथमें भी इसी भावका उपदेश किया गया है। क्योंकि-संहननआदि भवके भावसे सिद्ध होते हुए अर्थात् अष्टविध कर्मोंका क्षय करते हुये जीवके मोक्षसमयमें केवल ( केवलज्ञान ) जाता है; अर्थात् भवस्थ जो केवल पर्याय है; उससे केवलज्ञानका नाश होता है; यह अर्थ मान अर्थात् प्रमाण है; इसके सिद्ध होनेपर सिद्ध केवलज्ञान उत्पन्न होता है; और केवलज्ञानपनेमें वही ध्रुवभाव अर्थात् नित्यपना है। क्योंकि-मोक्ष जानेके समय में भी व्यय तथा उत्पाद होते हैं; और उस असिद्ध द्रव्यसे परिणत सिद्ध द्रव्यका जो अनुगम ( ज्ञान ) होता है; इससे मोक्षमें भी तीन लक्षण प्रकट होते हैं । और इसी भावके भावार्थ बोधनकेलिये गाथाको कहते हैं। जैसे “जो संहननआदि भवस्थ केवल विशेषके पर्याय हैं; वह सिद्धदशाको प्राप्त होते हुये जीवके नहीं होते इसलिये उसका व्यय होता है; और सिद्धत्वसे जो यह अर्थ पर्याय उत्पन्न हुआ है; उससे सिद्ध केवलज्ञानकी उत्पत्ति है; क्योंकि-सूत्रमें कहा है; कि-केवल भाव तो नष्ट होकर बदले में केवलज्ञानको ही देता है; अर्थात् उत्पन्न करता है ॥ २ ॥" और इसी भावकी अपेक्षासे “केवलज्ञान दो प्रकारके जानने एक भवस्थ केवलज्ञान और एक सिद्ध केवलज्ञान" इत्यादि सूत्रमें उपदेश है । और इस प्रकार स्थूलव्यवहारनयसे सिद्धोंमें भी त्रिविधलक्षणयुक्तता का आगमन हुआ परन्तु सूक्ष्म नयसे सिद्ध पर्यायमें त्रैलक्षण्य नहीं आया क्योंकि-ऋजुसूत्रआदि जो सूक्ष्मनय हैं; वह समय समयमें उत्पाद तथा व्ययको धारण करते हैं; इसलिये उन प्रतिक्षणके उत्पादादिको लेकर तथा द्रव्यार्थिकनयसे पूर्वोत्तर पर्याय में द्रव्यत्वरूपसे उत्पत्ति तथा नाशकी एकताको ग्रहण करके जो सिद्ध पर्यायके साथ केवलज्ञान है; उसमें त्रिविध लक्षणकी संगति भले प्रकार होती है और इसीको सूक्ष्मता जाननो चाहिये ऐसा विचारकर अब दूसरे पक्षको प्रकट करते हैं, वह क्या है, सो निरूपण करते हैं, कि-मोक्ष में जो उत्पत्तिआदि त्रिविध लक्षणता होती है, वह सिद्ध द्रव्यकी एकताके अनुगमसे होती है; जो कैवल्य पहले भवस्थ भावमें स्थित था वही सिद्धत्वदशामें कैवल्य है, भवस्थ पर्यायका तो नाश होता है, और उस भवस्थ पर्यायके नाशके सन्निधानसे मोक्षसंज्ञक पर्यायकी उत्पत्ति होती है, और पूर्व भवस्थपर्याय तया उत्तर सिद्ध पर्याय इन दोनों दशाओंमें कर्मोंके वियोगसे उत्पन्न जो केवलज्ञान है, वह ध्रुव है, इस कारण यह तीनों लक्षण मोक्षमें भी जानने चाहिये । भावार्थ तो यह है, कि-जो संहननादि भवस्थ केवल विशेषके पर्याय हैं, वह पर्याय सिद्ध दशाको प्राप्त होते हुए जो भगवान् हैं, उनके सिद्धयमान समयमें नहीं होते हैं, इसलिये उनके चले जानेसे तो व्यय होता है, और सिद्धत्वरूपसे जो मोक्षलक्षण अर्थ पर्याय उत्पन्न हुआ है, इस कारण उसकी उत्पत्ति होनेपर सिद्धत्वपर्यायकी उत्पत्ति होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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