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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १५१ है; और दोनों दशामें केवलज्ञानपना प्रतीत होता है; इसलिये ध्रुवत्व अव्याहत है । वह किस प्रकार से ? कि - मोक्षके पूर्वभवस्थ जीवके चार घातिया कर्मोंका नाश होनेपर जो केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है; उससे उत्पन्न होनेपर सिद्ध दशाको प्राप्त हुये जीवके संहननादिका अभाव होगया उसकी अपेक्षा तो व्यय है; और सिद्धत्व उत्पन्न हुआ उसकी अपेक्षासे उत्पाद है; तथा पूर्व संसारदशा में उत्पन्न जो केवल पर्याय है; उसका नाश न होने से धौव्य है । इस प्रकार उत्पाद, व्यय, और धौव्यस्वरूप तीनों लक्षण मोक्षदशामें भी पूर्णतया हैं ॥ १४ ॥ तदुपरि श्लोकमाह । इसी विषयको आगे के श्लोकसे सिद्ध करते हैं । तत्सिद्धत्वे पुनश्चेति कैवल्यं यत्पुरास्थितम् । व्ययोत्पत्यैकतो नित्यं पक्षे स्याल्लक्षणत्रयम् ॥ १५ ॥ भावार्थ:- पूर्व भवमें जो कैवल्य स्थित था वह पूर्वभवस्थ पर्यायकी अपेक्षासे सिद्ध अवस्था में भी होता है; इसलिये व्यय तथा उत्पाद है; और व्ययोत्पत्तिकी एकतासे नित्य है; ऐसे मोक्षमें तीन लक्षण होते हैं ।। १५ ।। व्याख्या । यत्पुरास्थितं कैवल्यं मवस्थपर्यायापेक्षि तत्सिद्धत्वेऽपि सिद्धावस्थायामपि । क्षीणे भवस्थ उत्पन्ने सिद्धत्वे व्ययोत्पत्ती स्याताम् । पुनर्नित्यं धौव्यं कुतो व्ययोत्पत्त्यैकतो व्ययश्चोत्पत्तिश्च व्ययोत्पत्ती तयोरैक्यं ध्रौव्यं तस्मान्द्ययोत्पत्त्यैकतो नित्यं ध्रौव्यं केवलम् । एवं मोक्षे लक्षणत्रयं स्यात्काल्पनिकमेवेदं भावानां विमर्शना बहुप्रकारा । अत एव " उप्पन्न वा विगमे वा ध्रुवे वा इति योजना ।। १५ । व्याख्यार्थः – जो भवस्थपर्यायकी अपेक्षाका धारक केवलज्ञान पहले भवस्थ दशामें स्थित था वह सिद्धावस्थामें भी होता है । यहां भवस्थके क्षीण होनेपर तथा सिद्धत्वके उत्पन्न होनेपर व्यय तथा उत्पाद होता है । और नित्य अर्थात् ध्रुवपना कहांसे हुआ ? इसका उत्तर यह है; कि-व्यय और उत्पत्ति इन दोनोंकी जो एकता है; उससे केवल ज्ञान ध्रुव है; इस रीति से मोक्षमें लक्षणत्रय संगत होते हैं; परन्तु यह लक्षणत्रय काल्पनिक ही हैं; क्योंकि — पदार्थोंके विचार करने के अनेक प्रकार हैं। इसी कारण "उप्पन्ने वा, विगमे वा ध्रुवे वा " कथंचित् उत्पन्न होता है, कथंचित् नष्ट होता है, और कथंचित् ध्रुव है; इत्यादि वाक्योंकी योजना होती है; अर्थात् यह उत्पादआदि किसी अपेक्षासे निरूपित होते हैं ।। १५ ।। ज्ञानाद्या निजपर्याया ज्ञेयाकारेण ये स्थिताः । व्यतिरेकेण ते चैवं सिद्धस्य स्युस्त्रिलक्षणाः ॥ १६ ॥ ज्ञेयके केवलदर्शन आदि निजपर्याय भावार्थ:- जो केवलज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only आकारसे www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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