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द्रव्यानुयोगतर्कणा
[ १३९ उत्पत्तिके संतानसे ही घटके नाशरूप व्यवहारकी संभावना होती है । और उत्तर पर्याय जो यहांपर मुकुटरूप पर्याय है, उसकी उत्पत्तिसे पूर्व घटरूप पर्यायका नाश भी विचारने योग्य है । और उसी प्रकारसे सुवर्णका ध्रौव्य भी विचारना चाहिये क्योंकि-जिसको निमित्त मानकर पूर्वपर्यायका नाश और उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति है उसका निरवच्छिन्न एक संतानत्व (सुवर्णका स्थिरत्व) जो है; वही द्रव्यके लक्षणसे उसका ध्रौव्य है । इस प्रकार त्रिविधलक्षणसहित एक दल ( वस्तु ) में यद्यपि तीनों ही लक्षण एक समयमें हैं; तथापि शोक, प्रमोद और माध्यस्थरूप अनेक कार्योंको शक्तिये दीख पडती हैं; इस रीतिसे अनेकत्व होनेसे भिन्नता भी समझनी चाहिये । इस प्रकार सामान्यरूपसे तो ध्रौव्य तथा विशेषरूपसे उत्पाद और व्ययको प्रत्येक वस्तुमें , प्रमाणोभूत न करनेवालोंके कोई विरोध भी नहीं है; क्योंकि-व्यवहारसे सर्वत्र स्यात् (कथंचित् ) इस अर्थके अनुप्रवेशसे सामान्यपरता भी है;
और व्युत्पत्तिविशेषसे विशेषपरता भी है । इसी कारणसे स्यात् उत्पन्न होता है; स्यात् नष्ट होता है; स्यात् (कथंचित्) ध्रुव है; ऐसे वाक्यका प्रयोग भी होता है । और उप्पन्नेइ वा इत्यादिक मूलपाठमें जो वा शब्द है; वह व्यवस्था अर्थमें है; और वह अर्थ स्यात् इस शब्दके समान है । इसी कारण 'कृष्णसर्प' (काला सांप) यह लौकिकवाक्य भी 'स्यात्' इस शब्दको गृहण करके ही वर्त्तता है; क्योंकि-सपके पृष्ठ (पीठ) देशमें श्यामता (कालापन) है; परन्तु उसके उदर देशमें (पेट में) नहीं है । और वैसे ही सर्पमात्रमें भी श्यामता नहीं है; क्योंकि 'शेष'-इस नामका धारक जो नाग है; वह शुक्ल ( सफेद ) ही है । इसलिये विशेषण विशेष्यके नियमार्थ 'स्यात्' शब्दका प्रयोग है; तो त्रिपदीमहावाक्य भी स्यात्कारका भागी हो सकता है ॥४॥
द्रव्यस्वभाव आख्यातो बहुकार्यककारणः ।
तदा ऋते हेतुभेदात्कार्यभेदः कथं भवेत् ॥५॥ भावार्थः-पूर्व प्रसंगमें “एक कारणरूप अनेक कार्योंका जनक द्रव्य है" यह द्रव्यका स्वभाव वर्णन किया है; तब हेतु ( कारण ) के भेदके विना कार्योंका भेद कैसे हो सकता है ॥५॥
व्याख्या । अष यद्य वं कथ्यते द्रव्यस्वभावो बहुकार्यककारणोऽस्ति । यथा हेमद्रव्यमेवाविकृतमस्ति विकारो मिथ्यास्ति । शोकादिकार्यत्रय जननैकशक्तिस्वमावं यत्तदेव द्रव्यं ततो द्रव्याच्छोकादिकार्यवयं जायते तदा कारणभेद विना कार्यस्य भेद: कथं भवेत् । श्रेयः साधनं यत्तत्प्रमोदजनकम, अनिष्टसाधनं यत्तच्छोकजनकम, तद्भयाभिन्न माध्यस्थजनकमित्येतशिविघं कार्यमेकस्मादेकरूपात्कथं भवेत. । शक्तिरपि दृष्टान्तान. सरिण्येव कल्पनीया । न चेदेवं ता रिमसामीप्याज्जलं दाहजनकस्वभावमित्यादिक प्रकल्पनमप्यनिवार्यम् । तस्माच्छक्तिभेदः कारणं भेद: कार्यभेदानुसारेणावश्यमनुसतव्यः । अनेकजननकशक्तिः शब्द एव एकत्वानेकस्वस्याद्वादं सूचयतीत्यर्थः ॥ ५ ॥
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