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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः-अब यदि ऐसा कहते हो कि-एक कारणरूप अनेक कार्योंका जनक यही द्रव्यका स्वभाव है । जैसे सुवर्णद्रव्य एक ही अविकृतरूप है; मुकुटआदि जो उसका विकार है; वह मिथ्या है। शोक, प्रमोद और माध्यस्थरूप तीन कार्योंको उत्पन्न करनेवाला जो शक्तिस्वभाव है; वही द्रव्य है; उस द्रव्यसे शोकआदिरूप तीन कार्य होते हैं; तब कारणके भेदके बिना कार्यभेद कैसे हो सकता है । क्योंकि-जो कल्याणका साधन है; वह प्रमोदका जनक है, जो अनिष्टका साधन है वह शोक (खेद) को उत्पन्न करनेवाला है, और दोनोंसे भिन्न अर्थात् श्रेयस्त्व तथा अनिष्टतासे भिन्न जो साधन है; वह न हर्षको उत्पन्न करता है; और न खेदको, इसलिये यह तीन प्रकारके कार्य एकरूप कारणद्रव्यसे कैसे उत्पन्न होते हैं; कार्यगत दृष्टान्तके अनुसार ही कारणगत शक्तिकी भी कल्पना करनी चाहिये । यदि ऐसा न मानो तो “अग्निकी समीपता से जल है; सो दाहको उत्पन्न करनेवाले स्वभावका धारक है" इत्यादि कल्पना भी अनिर्वारणीय होगी । इसलिये शक्तिभेदरूप जो कारण है; उसका भेद कार्यभेदके अनुसार अवश्य अनुसरण करना चाहिये अर्थात् कार्यभेद होनेपर कारणका भेद अवश्य मानना पड़ेगा । और अनेक कार्योंको उत्पन्न करनेवाली शक्ति हैं; यह शब्द ही एकत्व अनेकत्वरूप स्याद्वादको सूचित करता है। यह श्लोकका अर्थ है ॥५॥
अथ बौद्धमतमाह । अब इस विषयमें बौद्धका मत कहते हैं ।
शोकादिजननं लोकवासनाभेदतो भवेत् ।
वस्तुभेदो नेति बौद्धो निनिमित्तोऽशुचिः स्मयो ॥६॥ भावार्थः-द्रव्यमें शोकादिका जो उत्पाद है; वह लोकवासनाके भेदसे होता है और शोकादिके जननमें कोई वस्तुका भेद नहीं है । ऐसा कहनेवाला बौद्ध निमित्त शून्य है; और अपवित्र तथा स्मयी है ॥६॥
व्याख्या । यत्त लानमनोन्नमनवदुत्पादव्ययावेकदा भवतः क्षणिकस्वलक्षणस्य ध्रौव्यं नास्त्येव तच्छोकादिकार्यजननमपि मिन्नमिन्नलोकवासनातो भित्रमित्रभेदोपकारकमस्ति । यत एकं किमपि वस्तु वासनाभेदात् कस्यापीष्टं कस्याप्यनिष्टं स्यात्, यथेषु मनुष्याणामिष्टम; करमाणामनिष्टम, परन्तु तत्रेशुभेदो नास्त्येव । सदविहापि बोध्यमिति वदन् बौद्धो निनिमित्तो निमित्तभेदं बिना वासनारूपमनस्कारस्य भिन्नत्वं कथं जहाति । अत एवाशुचिः कलुषचित्तः पुनः स्वीकारेण स्मयीति । वस्तुतस्तु शोकादिकानामुपादानं यथा भिग्नं तथा निमित्तमपि भिन्नमवश्यं मंतव्यम । एकस्य वस्तुनः प्रमातृभेदेनेष्टानिष्टत्वमस्ति तथाप्येकस्य द्रव्यस्येष्टानिष्टज्ञानजननशक्तिरूपाः पर्यायभेदा अप्यनुसरणीया एवेति ॥६॥
व्याख्यार्थः-जैसे तुला (राजू) एक कालमें ऊंची नीची हो जाती है, उसी
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