SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १४१ प्रकार वस्तुके उत्पाद तथा नाश एक कालमें ही होते हैं। क्योंकि-क्षणिकस्वरूप अपने लक्षणको धारण करनेवाला जो पदार्थ है; उसके ध्रुवता (नित्यपना) है; ही नहीं। इसलिये शोकआदिका उत्पाद है; सो भी भिन्न भिन्न लोककी वासनासे होता है; और भिन्न भिन्न भेदका उपकार करता है। क्योंकि-एक ही कोई भी वस्तु वासनाके भेदसे किसीको इष्ट है और किसीको अनिष्ट है जैसे-इक्षु (ऊख वा ईख अथवा गन्ना) मनुष्योंको इष्ट (प्यारा) है; और ऊंटोंको अनिष्ट है; परन्तु यहांपर ईखका भेद नहीं है; अर्थात् वही इक्षु है । परंतु मनुष्योंके इष्ट और ऊंटोंके अनिष्ट है। ऐसे ही यहां घट मुकुट आदिमें भी जानना चाहिये ऐसा कहताहुआ बौद्ध निमित्त (कारण) के भेदके विना वासनारूप मनस्कार (मनके व्यापार)से जो चित्तकी सुखादि परकतारूप भेद है, उसको कैसे छोड़ता है । इसी कथनसे अशुचि अर्थात मलिनचित्त है, पुनः इस मतके स्वीकारसे गर्वयुक्त भी है। यथार्थमें तो जैसे शोकआदिके उपादान भिन्न भिन्न हैं; वैसे ही उनके निमित्त भी अवश्य ही भिन्न भिन्न मानने चाहिये। जहाँ प्रमाता ( इष्ट अनिष्टको अनुभव करनेवाले )के भेदसे एक पदार्थके इष्टता तथा अनिष्टता है; वहां भी एक द्रव्यका इष्ट तथा अनिष्ट ज्ञानको पैदा करनेमें शक्तिरूप ऐसे पर्याय भेदोंका ही अनुसरण करना चाहिये अर्थात् उस पदार्थमें ऐसे शक्तिभेद हैं; कि-जो किसीके इष्ट ज्ञानजनक हैं; और किसीके अनिष्ट ज्ञानके जनक हैं ॥६॥ चेन्निमित्त विना ज्ञानाच्छक्तिंसंकल्पकल्पना। तदा बहिर्वस्तुलोपाद् घटते न घटादिकम् ॥ ७ ॥ भावार्थ:-यदि निमित्तके विना ही वासनाविशेषरूप ज्ञानसे शक्तिरूप संकल्पको कल्पना होती है; तो बाह्य वस्तुके लोपसे घटआदि आकारकी कल्पना केवल वासनासे क्यों नहीं होती ॥७॥ ___ व्याख्या । अथ चेद्यदि निमित्तं निमितभेदं विना ज्ञानात् वासनाविशेषजनितज्ञानस्वभावाच्छक्तिसंकल्लकल्पना भवति । शोकप्रमोदादिकसंकल्पविकल्पना जायते तदा बहिवंस्तुलोपाद्वासनाविशेषेण घटपटादिनिमित्तं विनैव वासनाविशेषेण घटपटाद्याकारज्ञानं मवेत् । बाह्यवस्तु सर्व विलुप्यत इत्यर्थः । अथ च निष्कारणं तत्तदाकारज्ञानमपि न संमवेत्, अन्तर्बहिराकारविरोधेन बाह्याकारो मिथ्याप्रजल्पमानचित्रवस्तुविषयनीलपीताद्याकारज्ञानमपि मिथ्यैव जायते। तथा उषाद्याकारनीलाद्याकारावपि विरुद्धावेव भवतः । तदा सर्वशून्यवादिनो माध्यमिकत्रौद्धस्य मतमायाति । उक्त च-किं स्यात्सा चेन्न तैः कि स्यान्न स्यात्त-- स्मान्मतावपि । यदिदं स्वयमर्थानां रोचते तत्र के वयम् ॥१॥ शून्यवादोऽपि प्रमाणसिद्धयसिद्धिम्यां व्याहतोऽस्ति । ततः सर्वे नया: शुद्धस्याद्वादवीतरागप्रणोता आदर्तव्याः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थः-अब यदि निमित्त (कारण) भेदके विना ही वासनाविशेषसे उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy