________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 227 भावार्थ:-शुद्ध द्रव्यव्यंजन परमाणु जो है वह शुद्ध पुद्गल पर्याय है और द्वथणुकादि अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय हैं / ये अपने 2 गुण पर्यायों सहित हैं // 8 // व्याख्या / सद्व्यव्यञ्जनोऽणुः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपरमाणुः शुद्धपुद्गलपर्यवस्तस्य नाशो नास्ति / तथा वपणुकादिका अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः संयोगजनितस्वात् / कीदृशाः स्वीयगुणपर्यायसंयुताः पुद्गलद्रव्यस्य शुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायाः अशुदगुणग्यञ्जनपर्यायास्ते निज 2 गुणाश्रिता मन्तव्याः / यतः परमाणुगुणो यः स च शुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायस्तथा द्विप्रदेशादिगुणो यः स चाशुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायः // 8 // व्याख्यार्थः-शुद्ध द्रव्यव्यंजन परमाणु जो है वह शुद्ध पुद्गल पर्याय है। क्योंकि ससका नाश नहीं होता है / और व्याणुक आदि अशुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय हैं। क्योंकि, संयोगसे उत्पन्न होनेके कारण नाशवान हैं। ये कैसे हैं कि अपने गुण तथा पर्याय करके सहित हैं / अर्थात् पुद्गल द्रव्यके जो शुद्ध गुणव्यंजन पर्याय और अशुद्ध गुणव्यंजन पर्याय हैं, वे अपने अपने गुणके आश्रित मानने चाहिये / क्योंकि, जो परमाणुका गुण है वह तो शुद्ध गुणव्यंजन पर्याय है; और जो द्विप्रदेश आदिका गुण है वह अशुद्ध गुणव्यंजन पर्याय है // 8 // सूक्ष्मार्थपर्यवाः सन्ति धर्मादीनामितीव ये / कथयन्ति न कि तेऽमुंजानन्त्यात्मपरार्थतः // 6 // भावार्थः-धर्मादि व्यके सूक्ष्म अर्थपर्याय हैं ऐसा जो दिगम्बर कहते हैं सो क्या वे स्वपरबोधसे इस क्षणपरिणामरूप अर्थपर्यायको नहीं जानते // 9 // व्याख्या। धर्मादीनां धर्मास्तिकायादीनां सूक्ष्मार्थपर्यवाः शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायाः सन्ति, इसीव ये कथयन्त्येतादृशहठं कुर्वन्ति ते जना हठं त्यक्त्वा आत्मपरायंत. निजपरप्रत्ययादृजुसूत्रादेशेन चामु क्षणपरिणतिरूपं पूर्वोक्तमर्थपर्यायमपि केवलज्ञानादिवन कि किमिति कथं न जानन्ति हठं त्यक्त्वा कथं नाङ्गीकर्वन्ति। किं च तेषु धर्मास्तिकायादिष्वपेक्षया अशुद्धपर्यायोऽपि भवति न चेत्तदा परमाणुपर्यन्तविश्रामः पुद्गलद्रव्येऽपि म भवति, इत्यभिप्रायेण कथयन्नाह // 9 // व्याख्यार्थः-धर्मास्तिकाय आदि द्रव्योंके सूक्ष्म अर्थ पर्याय अर्थात् शुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय हैं, ऐसा जो हठ करते हैं, वे हठ करनेवाले मनुष्य हठको छोड़कर; अपने, प्रत्ययसे अथवा परके प्रत्ययसे और ऋजुसूत्रनयके आदेशसे इस क्षणपरिणाम रूप पूर्वकथित अर्थपर्यायको भी केवल ज्ञान आदिकी भाँति क्यों नहीं जानते ? अर्थात् अपने हठको छोड़कर क्यों नहीं स्वीकार करते / यह आक्षेप है / और भी, उन धर्मास्तिकाय आदिमें अपेक्षासे अशुद्ध पर्याय भी होता है, यदि ऐसा न हो तो पुद्गल द्रव्यमें भी परमाणु तक विश्राम नहीं होता है। इस अभिप्रायसे श्लोक कहते हैं // 9 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org