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________________ 226 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् व्याख्या / नरो हि नरशब्दस्य यथा व्यञ्जनपर्यय इति / यथा पुरुषवाच्यजन्ममरणकालपर्यन्त एकोऽनुगतनरत्वपर्यायः स च पुरुषस्य व्यञ्जनपर्यायोऽस्ति, संमतिविषये बालादिकस्तु पुनरर्थपर्यायः कथितः / अयमिति इदमः प्रत्यक्षत्वे साक्षात्संमतिदृष्ट इति / अत्र गाथा “पुरिसंमि पुरिससद्दो जम्माइ मरणकाफपज्जतो / तस्सओ बालाईया पजवभेया बहु विगप्पा // 1 // 6 // व्याख्यार्थः-जैसे नरशब्दका नर व्यंजनपर्याय है, तात्पर्य यह कि पुरुष शब्दसे वाच्य पुरुषपर्याय जन्मसे आदि लेकर मरणकालपर्यन्त एक अनुगत रूपसे नरत्व पर्याय है और वह पुरुषका व्यंजन पर्याय है और बाल आदिक अर्थपर्याय हैं ऐसा संमति ग्रंथमें कहा है, अर्थात् यह विषय साक्षात् संमतिमें देखा हुआ है। यहां संमतिकी गाथा है कि "जैसे पुरुषमें पुरुष यह शब्द जन्मसे मरणतक रहता है यह व्यंजन पर्याय है और उस पुरुषमें बाल, युवा, इत्यादि जो भेद हैं ये सब अर्थपर्याय हैं // 6 // ___ अथ केवलज्ञानादिकः शुद्धगुणव्यञ्जनपर्याय एव भवति, तत्रार्थपर्यायो नास्तीत्येतादृशी कस्यचिद्दिक्पटामासस्याशङ्कास्ति तां निराकरोति / __ अब “केवल ज्ञान आदि शुद्ध गुणव्यञ्जन पर्याय ही हैं, उनमें अर्थपर्याय नहीं है," ऐसी किसी दिगम्बराभासकी शंका है, उसको दूर करते हैं। षड्गुणहानिवृद्विभ्यां यथाऽगुरुलघुस्तथा / पर्यायः क्षणभेदाच्च केवलाख्योऽपि संमतः // 7 // भावार्थ:-जैसे षड्गुणी हानिवृद्धिसे अगुरुलघु पर्याय माना है, उसी प्रकार क्षणके भेदसे केवलाख्य गुण पर्यायके भी अर्थ पर्याय माना गया है।॥ 7 // ___ व्याख्या / षड्गुणहानिवृद्धिभ्यामगुरुलघुपर्याया यथा कथिताः षङ्गुणहानिवृद्धिलक्षणा अगुरुलघुपर्यायाः सूक्ष्मार्थपर्याया इतिवत्पर्यायः क्षणभेदात्केवलाख्योऽपि संमतः क्षणभेदात्केवलज्ञानपर्यायोऽपि मिन्नो मिन्न एव दर्शितः / यतः "पढमसमये योगभवत्थकेवलनाणे" अपढमसमये सजोगिभवत्थकेवलनाणे" इत्यादिवचनात्तहजुसूत्रादेशेन शुद्धगुणस्याप्यर्थपर्याया मन्तव्याः // 7 // ___व्याख्यार्थः-जैसे षड्गुणी हानि वृद्धिसे अगुरुलघु पर्याय कहे हैं अर्थात् जैसे षड्गुणी हानि वृद्धिलक्षण अगुरुलघु पर्याय अर्थात् सूक्ष्मार्थ पर्याय हैं ऐसेही क्षणके भेदसे केवल ज्ञान नामक पर्याय भी भिन्न भिन्न ही देखा गया है, क्योंकि, प्रथम समयमें योगभवस्थ केवलज्ञानमें, द्वितीयसमय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान में" इत्यादि वचन हैं, इसलिये ऋजुसूत्रनयके आदेशसे शुद्ध गुणके भी अर्थपर्याय मानने चाहिये / / 7 / / सद्व्यव्यञ्जनोऽणुश्चाशुद्धपुद्गलपर्यवः / द्वयणुकाद्या गुणाः स्वोयगुणपर्यायसंयुताः // 8 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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