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________________ द्रव्यानुयोगतकणा [225 व्याख्या। अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायोऽशुद्धद्रव्यव्यञ्जनो नरादिरादिशब्दावनारकतिर्यगादयो बहुधा मतास्तदपेक्षया नरादिबहुधा मतः / अत्र हि द्रव्यभेदः पुद्गलसंयोगजनितोऽस्ति / मनूष्यादिभेदेनैवं भेदः / गुणतोऽपीत्थमेव / गुणव्यञ्जनपर्यायो द्विप्रकारः / तत्र प्रथमं शुद्धगुणव्यञ्जनपर्याय: कैवल्यं केवलज्ञानादिरूपः, द्वितीयोऽप्यशुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायो मतिचिन्मुखः / मतिश्र तावधिमनःपर्ययरूप इति // 4 // व्याख्यार्थः-अशुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय मनुष्य, देव, नारक और तिर्यश्च आदि रूपसे अनेक प्रकारका माना गया है, इसीको अपेक्षासे "नरादिर्बहुधः मतः" यह सूत्रमें पाठ है। यहांपर द्रव्यका भेद पुद्गल संयोगसे उत्पन्न है, अतः मनुष्य आदिके भेदसे यह भेद होता है / गुणसे भी इसी प्रकार है अर्थात् गुणव्यंजन पर्याय भी दो प्रकारका है। उनमें प्रथम शुद्ध गुणव्यंजन पर्याय जो है, वह तो केवलज्ञान आदिरूप पर्याय है / और दूसरा अशुद्ध गुण व्यंजन पर्याय मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मनःपर्यय ज्ञान आदि स्वरूप है॥४॥ पुनः कथयति / फिर भी पर्यायका भेद कहते हैं / ऋजुसूत्रमतेनार्थपर्यायः क्षणवृत्तिमान् / आभ्यन्तरः शुद्ध इति तदन्योऽशुद्ध ईरितः // 5 // भावार्थः-ऋजुसूत्र नयके मतसे अर्थपर्याय क्षणवृत्तिवाला है। आभ्यन्तर तो शुद्ध अर्थपर्याय है और उससे अन्य अशुद्ध अर्थपर्याय कहा गया है / / 5 // व्याख्या / जुसूत्रमतेनर्जुसूत्रादेशेनार्थपर्यायः, आम्यसरः शुद्धार्थपर्यायः क्षणवृत्तिमान क्षणपरिणतः / तदन्यस्तदतिरिक्तोऽशुद्ध ईरितः / यो यस्मादल्पकालवर्ती पर्यायः स च तस्मादल्पत्वविवक्षया अशुद्धार्थपर्यायः कथ्यते // 5 // ___ व्याख्यार्थः-ऋजुसूत्रनयके आदेशसे आभ्यन्तर ( अन्तरंग )का जो है वह शुद्ध अर्थपर्याय है और क्षणमात्रवृत्ति है अर्थात् शुद्वार्थपर्याय झगझगमें परिणामको प्राप्त होता है। और उससे अन्य अशुद्ध अर्थपर्याय कहा गया है / तात्पर्य यह कि जो जिस पर्यायसे अल्पकालवर्ती पर्याय है वह पर्याय उस अधिक कालवी पर्यायसे अल्पत्वको अपेक्षासे अशुद्ध अर्थपर्याय कहा जाता है / / 5 // अत्र वृद्धवचनसंमति दर्शयति / इस विषय में वृद्धों के वचनरूप संमति दर्शाते हैं। नरो हि नरशब्दस्य यथा व्यञ्जनपर्ययः / बालादिकोऽर्थपर्यायः संमतौ भणितस्त्वयम् // 6 // भावार्थ:-जैसे नर शब्दका नर पर्याय व्यंजनपर्याय कहा गया है, वैसेही संमति प्रन्थमें बाल आदि अर्थपर्याय कहा गया है // 6 // 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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