________________ 228 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालाचाम् यथाऽकृतिश्च धर्मादेः शुद्धो व्यंजनपर्यवः / लोकस्य द्रव्यसंयोगादशुद्धोऽपि तथा भवेत् // 10 // भावार्थ:-जैसे धर्म आदि द्रव्यके लोकाकाश प्रमाणसे शुद्ध व्यंजन पर्याय है, ऐसेही लोकमें रहनेवाले द्रव्योंके संयोगसे अशुद्ध व्यंजन पर्याय क्यों न हो ? अर्थात् होनाही चाहिये // 10 // व्याख्या / धर्मास्तिकायादेराकृतिर्लोकाकाशमानसंस्थानरूपा यथा वर्तते तथा शुद्धो व्यंजनपर्यवः शुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायः कथ्यते परनिरपेक्षत्वेनेति / तथा लोकस्य द्रव्यसंयोगाल्लोकवर्ती द्रव्यसंयोगरूपोऽशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायोऽपि तस्य लोकस्य द्रव्यसंयोगान्निरपेक्षत्वं कथयन्विरोध नोत्पादयति / विरोधः कोऽपि नास्तीत्यर्थः // 10 // व्याख्यार्थ:-जैसे धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यका आकार लोकाकाश प्रमाण स्थितिरूप है, इसलिये परद्रव्यकी निरपेक्षासे वह शुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय है ऐसा कथन होता है; ऐसेही लोकके द्रव्योंके संयोगसे अर्थात् लोकमें रहनेवाले जो द्रव्य हैं उन द्रव्योंका धर्मादि द्रव्यके साथ संयोगरूप अशुद्ध द्रव्यव्यंजन पर्याय भी है; और उस लोकके द्रव्य संयोगसे निरपेक्षक होनेसे किसी विरोधको भी नहीं उत्पन्न करता; अर्थात् कोई विरोध नहीं है // 10 // ___अथाकृतिः पर्यायो भविष्यति, संयोगः पर्यायो न भविष्यतीत्याशङ्का परिहरनाह / अब आकृति पर्याय हो सकती है और संयोग नहीं इस आशंकाको दूर करते हुए कहते हैं। आकृतेरिव संयोगः पर्यवः कथ्यते यतः / उत्तराध्ययनेऽप्युक्तं पर्यायस्य हि लक्षणम् // 11 // भावार्थ:-आकृतिके समान संयोग भी पर्याय कहलाता है / क्योंकि, उत्तराध्ययन सूत्रमें भी पर्यायका लक्षण कहा है // 11 / / व्याख्या / संयोगोऽप्याकृतेरिवाकृतिवत्पर्यायः कथ्यते / यतो हेतोः पर्यायस्य लक्षणं हीति निश्चितमुत्तराध्ययनेऽप्युक्त कथितम् / ततोऽस्य लक्षणं सभेदमपि श्रीउत्तराध्ययनादेवावसेयमिति // 11 // व्याख्यार्थः-संयोग भी आकृति (आकार ) के समान पर्याय कहा जाता है / क्योंकि, निश्चय रूपसे पर्यायका लक्षण उत्तराध्ययन सूत्रमें भी कहा है। इसलिये भेदसहित पर्यायका लक्षण श्रीउत्तराध्ययनसूत्रसे ही जानना चाहिये // 11 // पुनस्तदेवाह / फिर पर्यायके विषयमें ही कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org