________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ 229 एकत्वं च पृथक्त्वं च संख्या संस्थानमेव च / संयोगश्च विभागश्चेतीत्थं मनसि चिन्तय // 12 // भावार्थः-एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग तथा विभाग इन सबको पर्याय रूपसे मनमें विचारो // 12 // व्याख्या / एकत्वं 1 पृथक्त्वम् 2 एतद्द्वयं तथा पुनः संख्या 1 संस्थानम् 2 एतद्द्वयं च पुनः संयोगः 1 विभाग: 2 एतद्वयं चेत्यादि षटकं द्वित्वपरिणतं मनसि चिन्तय / स्वचेतोगोचरीकुरुष्वेत्यर्थः / तथा च तत्र गाथा-"एगत्तं च पुत्तं च संख्या संठाणमेव च / संयोगो य विभागो य पज्जवाणं तु लक्खणं / 1 / " इत्येतग्दाथोक्त पर्यायभेदभावना भावयितव्या // 12 // ___व्याख्यार्थः-एकत्व 1 पृथक्त्व 2 ये दोनों, संख्या 1 संस्थान 2 (आकृति वा अवयवरचना) ये दोनों, पुनः संयोग 1 तथा विभाग 2 ये दोनों, इन तीन द्वन्द्व अर्थात् छहको मनमें पर्याय रूप विचारो / अर्थात् अपने चित्तमें इनको पर्यायके भेद समझो / ऐसी ही यहांपर उत्तराध्ययनकी गाथा है-"एकत्व 1 पृथक्त्व 2 संख्या 3 संस्थान 4 संयोग 5 और विभाग 6 ये पर्यायके लक्षण हैं / इस गाथामें जो (एकत्व आदि) कहे हैं, उनमें पर्यायके भेदकी भावना करनी चाहिये / भावार्थ-उत्तराध्ययनमें संयोगको भी पर्याय माना है // 12 // पुनः प्रकृतमेवार्थमाह / फिर उसी पर्याय विषयको कहते हैं / उपचारी न वाऽशुद्धो यद्यप्यन्याश्रितो भवेत् / असद्भूता मनुष्याद्यास्तदा नाशुद्धयोगकाः // 13 // भावार्थ:-जो उपचरित है वह यद्यपि परद्रव्याश्रित हो परन्तु अशुद्ध नहीं हो सकता। यदि ऐसा मानते हो, तब तो असद्भूत मनुष्य आदि भी अशुद्धपर्याययोगी नहीं होंगे // 13 / / व्याख्या / उपचारी न भवत्यशुद्धो यद्यप्यन्याश्रितो भवेत्परद्रव्यसंयोगी स्यात्तथाप्युपचारी अशुद्धता नाप्नोति / अथ च यद्येवं कथयिष्यथ यद्यदि च धर्मास्तिकायादीनां परद्रव्यसंयोगोऽस्ति तदुपचरितपर्याय इति कथ्यते, परन्त्वशुद्धपर्याय इति न कथ्यते, द्रव्यातथात्वहेतुष्वेवाशुद्धत्वव्यवहारोऽस्तीति, तत्तस्माद् मनुष्यादिपर्यायोऽप्यशुद्ध इति न कथयत, असद्भूतव्यवहारनयग्राह्यत्वेनासद्भूत इति कथयत / तद्धि तन्त्वादिपर्यायवदेकद्रव्यजनकावयवसंघातस्यवाशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्यायत्वं च कथयतां चतुरस्र लगेदिति / तस्मादपेक्षानपेक्षाभ्यां शुद्धाशुद्धानेकान्तव्यापकत्वमेव श्रेय इति / तदेवाग्रेतने पये प्रतिपादयिष्यति / पुनरक्षरार्थस्त्वेवम / असद्भूता मनुष्याद्यास्तदा अशुद्धयोगका नेति // 13 // व्याख्यार्थः-उपचारवान् यद्यपि परद्रव्यका संयोगी होवै तथापि वह अशुद्धताको नहीं प्राप्त होता है / अब यदि ऐसा कहते हो कि, धर्मास्तिकाय आदि द्रव्योंका परद्रव्यके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org