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________________ 232 ] द्रव्यानुयोगतकणा दो द्रव्य परस्पर मिलके जो एक द्रव्य होता है वह सजातीय द्रव्यपर्याय है / 1 / और मनुष्य आदि जो पर्याय हैं वे विजातीय द्रव्यपर्याय हैं। क्योंकि, जीव और पुद्गलका परस्पर संयोग होनेपर मनुष्य यह व्यवहार होता है। इससे यह सिद्धान्त हुआ कि भिन्न 2 जातिके दो द्रव्य मिलकर, जो एक द्रव्य होता है; वह विजातीय द्रव्य पर्याय कहलाता है / 2 / केवल ज्ञान जो है वह स्वभाव गुणपर्याय कहा जाता है / सो कैसे कि-वह कर्मोंके संयोगसे रहित है इसलिये स्वभाव गुणपर्याय है / 3 / तथा मतिज्ञान आदि पर्याय विभाव गुणपर्याय कहलाते हैं। सो कैसे कि, ये कर्मों के सम्बन्धसे होते हैं। इसलिये विभाव गुणपर्याय हैं / 4 / इन चारों दृष्टान्तोंको प्रायिक समझना चाहिये, अर्थात् ये सर्वत्र रहनेवाले नहीं हैं। परमार्थसे तो परमाणु रूप द्रव्यपर्याय इन चारोंमें अन्तर्गत होने योग्य नहीं है / क्योंकि, वह परमाणु द्रव्यविभागसे उत्पन्न पर्याय है न कि संयोगसे उत्पन्न / सोही संमतिमें कहा है कि-"दो तीन आदि अणुओंसे अनन्त द्रव्यांका आरंभ निरन्तर होता है। और जिसका फिर विभाग न हो वह अणु है / यह द्वयणुकसे विभाग करके होता है / " इत्यादि सब विचारके जानना चाहिये / और "आरंभ किये हुए द्रव्यके पर्यायमें दो अणु ओंके संयोगसे द्वथणुक उत्पन्न होता है, ऐसे ही तीन द्वयणुकोंसे त्र्यणुक और चार त्र्यणुकोंसे चतुरणुक उत्पन्न होता है और इसी प्रकार महापृथिवी, महाजल तथा महावायु आदि होते हैं" इत्यादि रूपसे नैयायिकोंने भी कहा है // 16 // पुनः प्रतिपिपादयिषुराह / उसी कथनकी इच्छासे पुनः इस श्लोकको कहते हैं / गुणानां हि विकाराः स्युः पर्याया द्रव्यपर्यवाः / इत्यादि कथयन्देवसेनो जानाति कि हृदि // 17 // भावार्थ-गुणों के विकारही पर्याय हैं यह, पहिले कहकर फिर द्रव्यपर्याय तथा गुणपर्याय कहते हुए देवसेनजी अपने मनमें क्या जानते हैं ? // 17 // व्याख्या / गुणविकाराः पर्याया एवं कथयित्वा तेषां भेदाधिकारे पर्याया द्विविधा द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्चेति कथयंश्च देवसेनो दिगम्बराचार्यों नयचक्रग्रन्थकर्ता हृदि चित्ते कि जानाति अपि तु सम्माविताथं न किमपि जानातीत्यर्थः / पूर्वापरविरुद्धभाषणादसत्प्राय एवेदमित्यभिप्रायः / किञ्च द्रव्यपर्याया एवं कथनीयाः परन्तु गुणपर्याया इति पृथग्भेदोत्कीर्तनं न कर्त्तव्यं द्रव्ये गुणत्वाधिरोपादुणे च गुणत्वामावादिति निष्कर्षः // 17 // व्याख्याःर्थ - गुणों के विकार पर्याय हैं ऐसा कहके पुनः पर्यायोंके भेदके अधिकारमें पर्याय दो प्रकारके हैं-द्रव्यपर्याय तथा गुणपर्याय इस प्रकार नयचक्रग्रन्थके कर्ता दिगम्बराचार्य देवसेनजी अपने चित्त में क्या जानते हैं ? अर्थात् कुछ नहीं जानते हैं / अर्थात् पूर्वापर विरुद्ध भाषण करनेसे यह झूठा है यह अभिप्राय है / और द्रव्यपर्याय ही कहने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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