________________ [ 233 द्रव्यानुयोगतर्कणा चाहिये और गुणपर्याय ऐसा दूसरा भेद न करना चाहिये। क्योंकि, द्रव्यमें गुणत्वका अध्यारोप है और गुणमें गुणताका अभाव है / यही तात्पर्य है // 17 // पुनस्तदेवाह / फिर उसीको कहते हैं। इत्थं पदार्थाः प्रणिधाय मूनि परीक्षिता ज्ञानगुरोः सदाज्ञाम् / तुच्छोक्तिमुत्सृज्य विमोहमूलामहत्क्रमाम्भोजरतेन सर्वे // 18 // भावार्थ:-ज्ञानके दाता श्रीगुरुकी उत्तम आज्ञाको मस्तकपर धारण करके, जिनेन्द्रके चरणकमलमें तत्पर मैंने विमोहके मूनभूत अज्ञप्रणीत वचनको त्यागकर, इस प्रकार सब पदार्थोकी परीक्षा की // 18 // इति श्रीयशोविजयोपाध्यायप्रणीतद्रव्यगुणपर्यायभाषाविवरणोक्तार्थसंदभितश्लोक . रूप-द्रव्यानुयोगतर्कणायां चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // व्याख्या / इत्थमनया रीत्या पदार्था द्रव्यगुणपर्यायाः परीक्षिताः स्वरूपलक्षणभेदादिकथनेन विशदीकृताः / किं कृत्वा ज्ञानगुरोः परम्परागतश्रुताचार्यस्य सदाशां सत्यनिदेशं मूनि मस्तके निधाय संस्थाप्य / पुनः किं कृत्वा विमोहमूलां भ्रमनिबन्धनां तुच्छोक्ति तुच्छबुद्धिप्रणीतवचनमुत्सृज्यापाकृत्य / कीहशेन मया अहंरक्रमाम्भोजरतेन वीतरागचरणकमलसेवनरसिकेन / सर्वे पदार्था मया परीक्षिता इत्यर्थः / भोजेति नामनिरूपणं चेति // 18 / / इति श्रीवाचकमुख्य-श्रीयशोविजयविभितद्रव्यगुणपर्यायभाषाविवरणतदुक्तिसङ्कलितायां कृतिमोजसागरविनिमितायां द्रव्यानुयोगतर्कणायां चतुर्दशोऽध्यायः॥ व्याख्यार्थः-परंपरागत श्रुताचार्यकी समीचीन आज्ञाको मस्तकपर धर करके और भ्रमसे उत्पन्न हुए ऐसे मन्दबुद्धियोंके रचे हुए वचनको दूर करके श्रीजिनेन्द्र के चरणकमलोंकी सेवा करनेमें रसिक ऐसे मैने इस प्रकार सब द्रव्य, गुण, पर्यायोंकी परीक्षा को; अर्थात् स्वरूप, लक्षण तथा भेद आदिका कथन करके स्पष्ट रीतिसे पदार्थोंका निरूपण किया। श्लषसे "क्रमाम्भोज" इस पदमें "भोज" यह अपने नामका निरूपण भी आचायने किया है // 18 // इति श्रीमाचार्योपाधिधारिपण्डितठाकुरप्रसादशर्मद्विवेदिप्रणीतमाषानुवादसमलङ्कृताया द्रव्यानुयोगतर्कणायां चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // द्रव्यादिकानां तु विचारमेवं विभावयिष्यन्ति सुमेधसो ये / प्राप्स्यन्ति ते सन्ति यशांसि लक्ष्म्यः सौख्यानि सर्वाणि च वाजिछतानि // 1 // भावार्थ:-जो बुद्धिमान इस प्रकार द्रव्य आदिका विचार करेंगे; वे उत्तम यश, लक्ष्मी तथा सम्पूर्ण अभिलषित सुखोंको प्राप्त होंगे // 1 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org