________________ 234 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्या / एवमनया रीत्या द्रव्यादिकानां विचारं ये सुबुद्धयो विमावयिष्यन्ति ते सुमेधस इह सम्ति शोभनानि यशांसि / पुनः लक्ष्भ्यः परत्र सर्वाणि वाञ्छितानि सुखानि प्राप्स्यन्तीति भावः // 1 // व्याख्यार्थः- इस पूर्वोक्त प्रकार से जो उत्तम बुद्धिके धारक भव्य जीव द्रव्यादि पदार्थोके विचारकी विभावना करेंगे वे सम्यक् ज्ञानधारी जीव अच्छे यश, और लक्ष्मियोंको प्राप्त करेंगे तथा परलोकमें सब वाञ्छित सुखोंको प्राप्त करेंगे / / 1 / / गुरोः च तेश्चानुभवात्प्रकाशितः परो हि द्रव्याद्यनुयोग आन्तरः / जिनेशवाणीजलधौ सुधाकरः सदा शिवश्रीपरिभोगनागरः // 2 // भावार्थ-सर्वोत्तम, आन्तरिक, ज्ञानस्वरूप, श्रीजिनेन्द्र के वचनरूपी समुद्र में चन्द्रमाके समान तथा निरन्तर मुक्तिलक्ष्मीके सेवनमें नागर ऐसा यह द्रव्यानुयोग मैंने गुरुके सिद्धान्तसे तथा अपने अनुभवसे प्रकाशित किया // 2 // व्याख्या / गुरोर्ज्ञानगुरोः श्रुतेः सिद्धान्तादनुभवात्स्वानुभूतेरान्तरोऽन्तर्ज्ञानमयः परः प्रकृष्टो द्रव्यानुयोगः प्रकाशितः / कीदृशो वीतरागवचन समुद्र चन्द्र इव चन्द्रः, निरन्तरं शिव लक्ष्मीविलासे नायक इव नागर इति // 2 // ये बालकास्ते किल लिङ्गशिनो ये मध्यमास्ते तु बहिष्क्रियारताः / द्रव्यानुयोगाभ्यसने य उत्तमाः कृतादराः सत्पथसङ्गिनस्ते // 3 // भावार्थ:-जो बालक (मुख) हैं वे केवल लिङ्गके दर्शक हैं, जो मध्यम (कुछ ज्ञानके धारक) हैं वे बाह्यक्रिया में तत्पर हैं, इसलिये जो द्रव्यानुयोगके अभ्यासमें आदर करनेवाले हैं वेही उत्तम (विशेष ज्ञानके धारक ) हैं और सन्मार्गके सङ्गी हैं // 3 // व्याख्या / ये बालका इति सुगमम् / षोडशकवचनं - "बालः पश्यति लिङ्ग मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तिम् / आगमतत्त्वं तु बुधः परीक्षते सर्वयत्तेन / 1 / " इति // 3 // व्याख्यार्थ:-'ये बालकाः' इत्यादि श्लोकका अर्थ सुगम है / इस श्लोकार्थके विषयमें षोडशकका भी वचन है-"बालक (मन्दबुद्धिजन ) लिङ्गको देखता है, मध्यम बुद्धिके धारक वृत्तिका विचार करते हैं और जो ज्ञानो ( उत्तम ) हैं वे सर्व प्रकारसे शास्त्रोक्त तत्त्वको परीक्षा करते हैं // 3 // किया प्रिया नैव विमुच्य संविदं न ज्ञानमानन्दकरं विना क्रियाम् / समुच्चये योगदृशां निरूपितं यदर्कखद्योतवदन्तरं महत् // 4 // भावार्थ:-ज्ञानके विना क्रिया प्यारी नहीं होती है और क्रियाके विना ज्ञान भी आनन्दका कर्ता नहीं होता है / और योगदृष्टिसमुच्चय नामक ग्रंथमें तो सूर्यमें और खद्योत (जुगुनू) में जितना अन्तर ( फरक) है उतना बड़ा भेद ही ज्ञान और क्रियामें निरूपण किया है / अर्थात् ज्ञान तो सूर्यके समान है और क्रिया खद्योतके तुल्य है // 4 // (1) इस व्याख्याका अर्थ सूत्रमावार्थसे ही समझ लेना चाहिये / क्योंकि इसमें विशेषता नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org