SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यानुयोगतर्फणा [235 खद्योतप्रतिमा क्रिया तु कथिता ज्ञानं तु भानूपममित्येतन्महदन्तरं कलियुगे कश्चिद्बुधो विन्दति / बाह्याभ्यासविनिर्मितो हि दुरितक्षेपो भवेद्द१र क्षुण्णक्षोदकणोपमः किमपरं वाक्यं बुधा ब्रू महे // 5 // भावार्थ:-क्रिया तो खद्योतके तुल्य कही गई है और नान सूर्यके समान है, इस प्रकार ज्ञान और क्रियामें बड़ा भेद है / इस भेदको कलियुग (पंचमकाल )में कोईही विद्वान् जानता है / और बाह्य के अभ्याससे उत्पन्न हुआ जो पापका नाश है, वह दर्दुर (मेंढ़क ) के द्वारा खोदे हुए मिट्टीके कणके बराबर है / बुधजनो ! इससे अधिक क्रिया तथा ज्ञानके भेदके विषयमें आपसे और क्या कहें ? // 5 // __व्याख्या। क्रियेति स्पष्टम् / यदुक्त योगदृष्टिसमुच्चये "तात्कालिकः पक्षपातो मावशून्या च या क्रिया / अनयोरन्तरं ज्ञेयं मानुखद्योतयोरिव / 1" "मंड्रकचूनकप्पो किया जाणियो को किलेसाणं / सद्ददुरचुन कप्पो नाणकओ तं च आणाए // 1 // 5 // " व्याख्यार्थ:-"क्रिया प्रिया" इत्यादि चतुर्थ तथा पंचम इलोकका अर्थ स्पष्टही है इसलिये व्याख्या नहीं की / यही विषय योगदृष्टिसमुच्चय में कहा है कि तत्काल अर्थात् उसी क्षणमें होनेवाले अपने पक्षातको प्रकट कर्ता ज्ञान में ओर भावान्य जो क्रिया है उसमें सूर्य और खद्योतके बराबर भेद जानो / 1 / " इस विषय में यह गाथा भो है “क्रिया आदिसे मेंढ़कके खांदे हुए मिट्टीके कणके बराबर पापोंका नाश होता है ओर ज्ञानसे मेंढकके समान पापका नाश होता है, यह सर्वज्ञको आज्ञासे सिद्ध है / 1 / / 4 // 5 मिथ्यात्वमूलाष्टककर्मसंस्था न कोटिकोटेरधिकोपदिष्टा / समागते ज्ञानगुणेऽत्र पुंसो महानिशीथोक्तमिति प्रमाणम // 6 // भावार्थः-मनुष्यको ज्ञान गुण प्राप्त होनेपर मिथ्यात्व है मूल जिनका ऐसे आठों कोंकी स्थिति कोटिकोटि सागरसे अधिक नहीं है, यह प्रमाण महानिशीथ ग्रंथमें कहा हुआ है // 6 // जानाति तत्वानि यथार्थमथं ब्रूते परान्यो दुरितं निहन्ति / / अनन्तकायस्थमपाकरोति यो भाष्य उक्तः स तु केवली ज्ञः // 7 // . भावार्थ:-जो संपूर्ण तत्त्वोंको जानते हैं, जो भव्यजीवोंको यथार्थ पदार्थका कथन करते हैं, जो अनन्तकायस्थको दूर करते हैं वे भाष्यमें केवली कहे गये हैं // 7 // व्याख्या। अथ मिथ्यात्वेति / ज्ञानं हि सम्यग्दर्शनसहितमेवायाति तत्प्राप्तौ च कदाचिदपि मिथ्यात्वमध्यगतो भवेत्तथापि जीवः कोटाकोटिसागरमिति कालादधिकं कर्मबग्वं न करोति "बंषेण न बोलइ कयावीति" वचनात् / एतदभिप्रायेण नन्दिषेणाधिकारे महानिशीथसूत्रे ज्ञानगु. णोऽप्रतिपाती कथितः / उत्तराध्ययनेऽपि यथोक्त “सूई जहा समुत्ता ण णस्सई कयवरम्मि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy