________________ 236 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पडियाई। इय जीवोवि ससुत्तो ण णस्सइ गोवि संसारे // 1 // " अत्र बृहत्कल्पगाथा चेयम "गीयत्थे केवली चबिहे पन्नत्ते तं जहा जाणणेय 1 कहणेय 2 उल्लरागहोसे 3 अणत कायस्स वजणेण य 4 // " गाथा-"गीयत्थस्स वयणेणं विसं हालाहलं पिवे। अगीयत्थस्स वयणेणं अमयपि न घुट्टए / 1 / अगीयत्थ कुमीलेहिं संगं तिविहेण वोसिरे / मुक्खमग्गस्स ते विग्धं पहंमि तेणगे जह / / " "करी मिच्छोः श्रतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः / कलादिविकलो योग इतीच्छायोगलक्षणम् / 1 / " इति वचनं ललितविस्तरादौ ग्रन्थे / दृढकरणवाक्यमालेयम / अनावश्यकगाथा-"दसणपक्खो सावय चरित्तनय संदधम्मे य। दसणचरितपक्खो समणे परलोग खंमि / 1" "मणेरिवामिजातस्य क्षीणवृत्तेरसंशयम / तात्स्थ्यात्तदञ्जनत्वाच्च समापत्तिः प्रकीत्तिता // 1 // 6 // 7 // " व्याख्यार्थः-"मिथ्यात्वमूलाष्टक" इस छ? तथा "जानाति तत्वानि" इस सातवें इन दोनों श्लोकोंको मिलाके व्याख्या करते हैं। ज्ञान गुण जब आता है तब सम्यग्दर्शन सहित ही आता है और उस ज्ञानके प्राप्त होनेपर जीव कदाचित् मिथ्यात्वके बीचमें आजाय तो भी कोटाकोटि सागर प्रमाण कालसे अधिक कर्मबन्धन वह जीव नहीं करता है, क्योंकि-"जो ज्ञानी है वह कर्मबन्धसे संसारमें कभी नहीं डूबता" ऐसा वचन है। इसी अभिप्रायसे महानिशीथ सूत्रमें नन्दिषेण अधिकारमें ज्ञान गुण अप्रतिपाती कहा है अर्थात् ज्ञान गुण हुए पीछे पुनः उसका प्रतिपात (अध:पतन ) नहीं होता है / और उत्तराध्ययनमें ऐसा कहा है कि “जैसे सूत्र (तागे) सहित सुई नष्ट नहीं होती किन्तु वस्त्र आदिमें प्रवेश करके पुनः निकल आती है, इसी प्रकार सूत्र (ज्ञान ) सहित जीव भी संसारमें गया हुआ नष्ट नहीं होता है / 1 / " यहां यह बृहत्कल्पकी गाथा भी है-“गीतार्थ केवली जाननेवाले, कहनेवाले, रागद्वेषरहित, और अनन्तकायवर्जक इन भेदोंसे चार प्रकारके कहे गये हैं।” “गीतार्थके वचनोंसे हालाहल विषको पीना चाहिये और अगीतार्थके वचनोंसे अमृत भी नहीं पीना चाहिये / 1 / " “अगीतार्थकुशीलोंका संसर्ग मन, वचन, कायसे छोड़ना चाहिये। क्योंकि, जैसे रास्ते में चोर विघ्नकर्ता होते हैं वैसे वे भी मोक्षमार्गमें विघ्नके कर्ता हैं // 1 // " "शास्त्रके अर्थको करनेकी इच्छावाले प्रमादी ज्ञानीके जो कला आदिसे रहित योग है वही इच्छायोग कहलाता है, यह इच्छायोगका लक्षण है / " ऐसा वचन ललितविस्तर आदि ग्रंथों में है। यह पूर्वोक्त जो वाक्यसमूह 'यहाँ दिया गया है सो इस विषयको पुष्ट करनेके लिये है। यहां आवश्यक गाथा भी है कि-"दर्शनपक्षको धारण करनेवाला श्रावक है / यह चारित्रसे नष्ट है, परन्तु धर्मसे आर्द्र है / और मुनि दर्शन तथा चारित्र दोनोंके पक्षको धारण करते हैं और परलोक अर्थात् अग्रिम भवोंका नाश करते हैं अर्थात् उसी भवसे मोक्ष जाते हैं / 1 / " "शुद्धरत्नकी तरह क्षीणवृत्ति जीवके उसमें रहनेपनेसे तथा उसके अंजनपनेसे समापत्ति कही गई है, यह कथन निस्सन्देह है // 16 // 7 // " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org