________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [257 ज्ञानं हि जीवस्य गुणो विशेषो ज्ञानं भवाब्धेस्तरणे सुपोतः।। ज्ञानं हि मिथ्यात्वतमोविनाशे भानुः कृशानुः पृथुकर्मकक्षे // 8 // भावार्थ:-ज्ञान जो है वह जीवका विशेष गुण है, ज्ञान संसाररूपी समुद्रके तिरनेमें उत्तम नौका (अच्छा जहाज) है / ज्ञान मिथ्यात्वरूपी अंधकारको नष्ट करने में सूर्यके समान है / ज्ञान विशाल कर्मरूपी काष्ठ के भस्म करनेमें अग्निके समान है // 8 // ज्ञानं निधानं परमं प्रधानं ज्ञानं समानं न बहुक्रियाभिः / ज्ञानं महानन्दरसं रहस्यं ज्ञानं परं ब्रह्म जयत्यनन्तम् // 9 // भावार्थ:-ज्ञान सर्वोत्तम खजाना है, ज्ञानही सबमें प्रधान है, ज्ञान अनेक क्रियाओंके समान नहीं है अर्थात् अनेक प्रकार के आचरणोंसे भी विशिष्ट ज्ञानही है, ज्ञानही महा आनन्दरूप सुखका देनेवाला रस है, ज्ञानही परमात्माका रहस्य है और अन्तरहित है, ऐसा ज्ञान सर्वोत्कर्षता करके वर्त्तता है // 9 // बाह्याचारपराश्च बोधरहिता इच्छाख्ययोगोद्धताः ये केऽपि प्रतिसेवनाविधुरितारते निन्दिताः शासने / ये तु स्वच्छमतुच्छवाङमयकलाकौशल्यमाबिभ्रति सार्वोक्तामृतपानसादरधियस्तेभ्यो मुनिभ्यो नमः // 10 // भावार्थ:-जो बाह्यकी क्रियाओंमें तत्पर हैं, ज्ञानकरके रहित हैं, इच्छायोगसे उद्धत हैं और ज्ञानादिको सेवनासे रहित हैं; वे जीव जिनमतमें निन्दित समझे जाते हैं और जो अतिनिर्मल तथा विशाल ज्ञानकलाके कौशल्यको धारण करते हैं और सर्वज्ञके वचनरूपी अमृतके पीनेमें आदरपूर्वक बुद्धिको धारण करनेवाले हैं, उन मुनियोंको मेरा नमस्कार है // 10 // अथ प्रशस्तिः / श्रीवीरपट्टाधिपतिर्बभूव सूरिः सुरत्नाद्विजयो यशस्वी / यस्मिन्समुद्रे विविशुः समग्रा विद्यासुनद्यश्च चतुर्दशापि // 11 // अब प्रन्थकार प्रशस्ति लिखते हैं। श्लोकार्थः-श्रीवोरके पट्टके स्वामी, तथा यशके धारक श्रीरत्नविजयजी सूरि हुए, जिन रत्नविजयजी मूरिरूप समुद्रमें समस्त चौदह विद्यारूप उत्तम 2 नदियें प्रविष्ट थीं अर्थात् सब विद्याओंके धारक रत्नविजयजी सूरि हुए // 11 // तत्पट्टोदयशैलसङ्गतरविमिथ्यातमस्त्रासने भव्याम्भोरुहभासने सुविपुलं ज्ञानात्रभारं वहन् / कुग्राहग्रहतारतारकमिलद्दोषाविलं पुष्करं शोभावद्विवधन्बभूव विजयाच्छीमत्क्षमाधीश्वरः // 12 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org