________________ 238 ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् श्लोकार्थः-उन रत्नविजयसूरिजीके पट्टरूपी उदयाचलके समागमसे सूर्यके समान, और मिथ्वात्वरूपी अंधकारको दूर करनेके लिये तथा भव्यरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिये ज्ञानरूपी किरणों के समूहको धारण करनेवाले ओर खोटे सिद्धान्तको ग्रहण करनेवाले अच्छे वादीरूप तारोंके संगमसे रात्रिपूर्ण आकाशको शोभायुक्त करने वाले ऐसे श्रीक्षमाविजयजी सूरि हुए // 12 // मदनो निहतः स्वरूपतस्तरसा येन जितः सुराचलः / महसा सहसा सहस्रग्विजितः सौम्यतया सुधाकरः // 13 // वचसा वचसामधीशिता कविताभिः कविरोशवत्तया। हरिरेव जितो यशस्विना विदुषा केन स चोपमीयते युग्मम् / // 14 // श्लोकार्थः-यशके धारक जिन्होंने अपने रूपसे कामदेवको हराया, गुरुतासे सुमेरुको जीता, स्वभावसे उत्पन्न तेजसे सूर्य को जोता और सौम्यतासे चंद्रमाको जीता // 13 // वचनसे बृहस्पतिपनेको, कवितासे शुक्रको और ऐश्वर्यसे इन्द्रको जीता ऐसे उन आचार्योंको विद्वान् किसकी उपमा देवे अर्थात् जो उपमा देने योग्य पदार्थ थे उनको तो उन्होंने अपने गुणोंसे ही जीत लिया, अब उनको किसकी उपमा दी जावे / / 14 / / इन दोनों श्लोकोंको मिलाके अर्थ किया गया है, इसलिये युग्म है। सरस्वती यस्य मुखाग्निरन्तरा प्रकाशमासादयति प्रभाविनी / हिमाद्रिपद्मद्रहतो निरत्यया सरिद्वरेवामरलोकपूजिता // 1 // श्लोकार्थ:-जैसे हिमाचलके पद्मद्रहसे देव तथा मनुष्योंसे पूजित गंगानदी निरन्तर निकलती हैं, उसी प्रकार जिनके मुखसे प्रभावकी धारक सरस्वती सदा प्रकट होती रहती हैं // 15 // - यदीयकोतिर्धवलेष्टमूर्तिखिलोकसंपूर्तिमिति नित्यम् / अनादिगङ्गव जडस्वभावं विहाय वैशद्यमुरीचकार // 16 // श्लोकार्थः-उज्वल इष्ट आकारको धारण करनेवाली जिनकी कीर्ति सदा तीन लोकको पूर्ण ( व्याप्त ) कर रही है सो यह कीर्ति ऐसी सोहती है, मानो अनादि गंगाने अपने जड़ (जल) स्वभावको छोड़कर, सचेतनता (निर्मलता) को ही स्वीकार कर लिया है // 16 // अहो यदीयेन गुणोच्चयेन विहाय संख्यां ववृधे यथास्वम् / अतः कणादोक्तगुणेषु दक्षा गुणत्वजाति न तथा वदन्ति // 17 // श्लोकार्थः-आश्चर्य है कि जिनके गुणोंका समूह संख्याको छोड़कर, इच्छानुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org