________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 239 वृद्धिको प्राप्त हो गये / इसीलिये कणादके कहे हुए गुणोंमें चतुर जन गुणत्व जातिको वैसी नहीं कहते हैं // 17 // यत्कोतिकान्ता व्यभिचारिणीव समुत्सुकैका त्रिदिवंजगाम तत्रामरस्पर्शविशीर्णहारा तस्तार तारोपममौक्तिकः खम् // 18 // श्लोकार्थ:-जिनकी कीर्तिरूपी स्त्री व्यभिचारिणी स्त्रीकी नाई समुत्सुक होकर, एकलीही स्वर्गमें चली गई वहां पर देवोंके संसर्गसे टूटे हारवाली होकर, तारोंके समान जो मोती हैं उनसे आकाशको आच्छादित करती हुई / भावार्थ-ये आकाशमें तारे नहीं है, किन्तु उन आचार्योंकी कीर्तिरूप स्त्रीके हारमेंसे टूटे हुए मोती हैं // 18 // अहीनो नोऽहीनो यदपि वपुषा भूभरजुषा तथाप्यास्ये वाणी ह्रसति तच्छषीति भणनात / अतस्त्वादेाह्मीभणननियमश्चेतसि कृत स्त्रिकालस्त्र लोक्यस्त्रिपदमयसन्दर्भविततः // 16 // श्लोकार्थः-यद्यपि वे पृथ्वीको धारण करने रूपगुणसे शोभायमान शरीरसे अहीन अर्थात् उत्तम थे, तथापि अहि+इन = अहीन अर्थात् शेषनागजी नहीं थे, और उनके मुखमें जो वाणी है वह शैषी इस नामके कहनेसे शब्द करती है, इसलिये उन्होंने अपने मनमें तीन काल, तीन लोक और तीन रत्नोंको रचनासे प्रसिद्ध ओंकाररूप आदिकी ब्रह्मसंबन्धी पाणीके कथन करनेका नियम किया // 19 // स एष गच्छाधिपतिविभाति सूरीश्वरः श्रीविजयाद्दयाख्यः। यस्य प्रभावेण च पञ्चमेऽपि चतुर्थभावं समवाप धर्मः // 20 // श्लोकार्थः-वे उपरोक्त गुणोंके धारक ये गच्छ के स्वामी श्रीदयाविजयजी नामक सूरीश्वरजी सर्वोत्तम रूपसे प्रकाशमान हो रहे हैं, जिनके प्रभावसे पंचमकालमें भी धर्म चतुर्थकालपनेको प्राप्त हुआ अर्थात् पंचमकालमें भी चतुर्थकाल जैसी धर्मोन्नति हुई // 20 // तैरनुग्रहधिया विधिरेष दशितो मयि च शाखसमुत्थः / __तत्कृते च मयका रचितोऽयं ग्रन्थ आगमपदैश्च पुराणः // 21 // श्लोकार्थः-उन श्रीदयाविजयजी सूरीश्वरजीने ही कृपाबुद्धिसे मुझमें शास्त्रका ज्ञान दर्शाया है (प्रकट किया है) और इसलिये उन्हींकी प्रसन्नताके लिये प्राचीन सिद्धान्तोंके पदोंसे यह (द्रव्यानुयोगतर्कणा नामक) ग्रन्थ मैंने रचा है // 21 // तद्गच्छपुष्करदिवाकररश्मितुल्याः श्रीभावसागर इति प्रथिताभिधानाः / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org